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न्याय-दीपिका
निरुपाधिक सम्बन्धरूप व्याप्तिका भी खण्डन किया गया है। यह किरणावली और न्यायदीपिकागत लक्षणमें कुछ शब्दभेद है। पर दोन की रचनाको देखते हुए भिन्न ग्रन्थकारकी रचना प्रतीत नहीं होते प्रत्युत किरणावलीकारकी ही वह रचना स्पष्टतः जान पड़ती है। दूस बात यह है, कि अनौपाधिक सम्बन्धको व्याप्ति मानना उदयनाचार्य मत माना गया है। वैशेषिकदर्शनसूत्रोपस्कार (पृ० ६०) में 'नाप्यनी धिक: सम्बन्धः' शब्दोंके साथ पहिले पूर्व पक्ष में अनौपाधिकरूप व्यानि लक्षणकी आलोचना करके बादमें उसे ही सिद्धान्तमत स्थापित किया। यहाँ 'नाप्यनौपाधिक:' पर टिप्पण देते हुए टिप्पणकारने 'प्राचार्या दूषयन्नाह' लिखकर उसे आचार्य (उदयनाचार्य) का मत प्रकट किया मैं पहले कह आया हूँ कि उदयन आचार्यके नामसे भी उल्लेखित जाते हैं । इससे स्पष्ट मालूम होता है कि अनौपाधिक-निरुपा सम्बन्धको व्याप्ति मानना उदयनाचार्यका सिद्धान्त हैं और उसीकी न्या दीपिकाकारने आलोचना की है। उपस्कार और किरणावलीगत व्या तथा उपाधिके लक्षणसम्बन्धी संदर्भ भी शब्दशः एक हैं, जिससे टिणा कारके अभिप्रेत 'आचार्य' पदसे उदयनाचार्य ही स्पष्ट ज्ञात होते ।। यद्यपि प्रशस्तपादभाष्यकी व्योमवती टीकाके रचयिता व्योमशिवाचार्य । प्राचार्य कहे जाते हैं, परन्तु उन्होंने व्याप्तिका उक्त लक्षण स्वीकार किया। बल्कि उन्होंने सहचरित सम्बन्ध अथवा स्वाभाविक सम्बन्धः व्याप्ति माननेकी अोरही संकेत किया है। वाचस्पति मिश्रने भी अनौ धिक सम्बन्धको व्याप्ति न कहकर स्वाभाविक सम्बन्धको व्याा कहा है।
४. वामन—इनका विशेष परिचय यथेष्ट प्रयत्न करनेपर भी मास नहीं हो सका। न्यायदीपिकाके द्वारा उद्धृत किये गए वाक्यपर
१ देखो, ब्योमवती टीका पृ० ५६३, ५७८ । देखो न्यायवाति तात्पर्यटीका पृ० १६५, ३४५ ।