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न्याय-दीपिका वीतराग कथा में और विजिगीषुकथा में अनुमिति उत्पन्न नहीं होती, ऐसा नैयायिकों का मानना है ।
पर उनका यह मानना अविचारपूर्ण है; क्योंकि वीतरागकथा में शिष्यों के अभिप्राय को लेकर अधिक भी अवयव बोले जा सकते हैं। 5 परन्तु विजिगीषुकथा में प्रतिज्ञा और हेतुरूप दो ही अवयव बोलना पर्याप्त है, अन्य अवयवों का बोलना वहाँ अनावश्यक है। इसका खुलासा इस प्रकार है
वादी और प्रतिवादी में अपने पक्ष को स्थापित करने के लिए जीत-हार होने तक जो परस्पर (आपस) में वचनप्रवृत्ति (चर्चा) 10 होती है वह विजिगीषुकथा कहलाती है। और गुरु तथा शिष्यों में
अथवा रागद्वेष रहित विशेष विद्वानों में तत्त्व ( वस्तुस्वरूप ) के निर्णय होने तक जो आपस में चर्चा की जाती है वह वीतरागकथा है । इनमें विजिगीषुकथा को वाद कहते हैं। कोई (नैयायिक) वीत
रागकथा को भी वाद कहते हैं। पर वह स्वग्रहमान्य ही है, क्योंकि 15 लोक में गुरु-शिष्य आदि की सौम्यचर्चा को वाद ( शास्त्रार्थ ) नहीं
कहा जाता। हाँ, हार-जीत की चर्चा को अवश्य वाद कहा जाता है। जैसे स्वामी समन्तभद्राचार्य ने सभी एकान्तवादियों को वाद में जीत लिया। अर्थात्-विजिगीषुकथा में उन्हें विजित कर लिया।
और उस वाद में परार्थानुमान वाक्य के प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही 20 अवयव कार्यकारी हैं, उदाहरणादिक नहीं। इसका भी स्पष्टीकरण
इस प्रकार है-सबसे पहले लिङ्गवचनरूप हेतु अवश्य होना चाहिये, क्योंकि लिङ्ग का ज्ञान न हो, तो अनुमिति ही उत्पन्न नहीं हो सकती है । इसी प्रकार पक्ष-वचनरूप प्रतिज्ञा का भी होना आवश्यक
है। नहीं तो, अपने इष्ट साध्य का किसी आधारविशेष में निश्चय नहीं 25 होने पर साध्य के सन्देह वाले श्रोता को अनुमिति पैदा नहीं हो