Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Dharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 366
________________ तीसरा प्रकाश २२५ सिद्ध हो गया और उसे श्रन्वयदृष्टान्त श्रापने ही स्वीकार कर लिया । इससे ही आपको सन्तोष कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह कि इस कहने से भी वस्तु श्रनेकान्तात्मक प्रसिद्ध हो जाती है । पहले जिस 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : ' वाक्व का उदाहरण दिया गया है उस वाक्य के द्वारा भी 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान 5 और सम्यक्चारित्र इन तीनों में मोक्षकारणता ही है, संसारकारणता नहीं' इस प्रकार विषयविभागपूर्वक ( अपेक्षाभेदसे ) कारणता और प्रकारणता का प्रतिपादन करने से वस्तु अनेकान्त स्वरूप कही जाती है । यद्यपि उक्त वाक्य में अवधारण करने वाला कोई एवकार जैसा शब्द नहीं है तथापि "सर्वं वाक्यं सावधारणम्" अर्थात् 10 - सभी वाक्य अवधारण सहित होते हैं इस न्याय से उपर्युक्त वाक्य के द्वारा भी सम्यग्दर्शनादि में मोक्षकारणता का विधान और संसारकारणता का निषेध स्पष्ट सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार प्रमाण - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-से यह सिद्ध हुआ कि वस्तु अनेकान्तस्वरूप है । 15 नयका लक्षण, उसके भेद और सप्तभङ्गी का प्रतिपादन - प्रमाण का विस्तार से वर्णन करके अब नयों का विश्लेषणपूर्वक कथन किया जाता है। नय किसे कहते हैं ? प्रमाण से जाने हुये पदार्थ के एक देश (अंश) को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के श्रभिप्रायविशेष को नय कहते हैं। क्योंकि "ज्ञाता का अभिप्राय नय 20 है" ऐसा कहा गया है। उस नय के संक्षेप में दो भेद हैं- १ द्रव्यार्थिक और २ पर्यायार्थिक । उनमें द्रव्यार्थिक नय प्रमाण के विषयभूत द्रव्य - पर्यायात्मक, एकानेकात्मक अनेकान्तरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिक नय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ उसकी स्थिति मात्र को स्वीकार कर अपने विषय द्रव्य को भेद- 25

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