Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Dharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 365
________________ .२४ न्याय-दीपिका गर में भी जो प्रवृत्ति होती है वह अपने पुण्य के लिए ही होती है। स कारण जीव द्रव्य की अपेक्षा से अभेद है और मनुष्य तथा देव र्याय की अपेक्षा से भेद है, इस प्रकार भिन्न भिन्न नयों की दृष्टि से द और अभेद के मानने में कोई विरोध नहीं है, दोनों प्रामाणिक —प्रमाणयुक्त हैं। . ....: इसी तरह मिट्टीरूप अजीव द्रब्य के भी मिट्टी के पिण्डाकार का बनाश, कम्बुग्ग्रीवा आदि आकार की उत्पत्ति और मिट्टीरूप की स्थति होती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि अजीव द्रव्य में भी रत्पत्ति, विनाश और स्थिति ये तीनों होते हैं। स्वामी समन्तभद्र के मत का अनुसरण करने वाले वामन ने भी कहा है कि समीचीन पदेश से पहले के अज्ञान स्वभाव को नाश करने और आगे के त्त्वज्ञान स्वभाव के प्राप्त करने में जो समर्थ प्रात्मा है वही शास्त्र का अधिकारी है। जैसा कि उसके इस वाक्य से प्रकट है :'न शास्त्रमसद्रव्येष्वर्थवत्' अर्थात्-शास्त्र असद् द्रव्यों में जो तीव अज्ञान स्वभाव के दूर करने और तत्त्वज्ञान स्वभाव के प्राप्त करने में समर्थ नहीं है उसमें). प्रयोजनवान् नहीं है-कार्यकारी नहीं है। इस प्रकार अनेकान्तस्वरूप वस्तु प्रमाणवाक्य का विषय है और इसलिए वह अर्थ सिद्ध होती है। अतएव इस प्रकार अनुमान करना त्राहिए कि समस्त पदार्थ अनेकान्त स्वरूप हैं, क्योंकि वे सत् हैं, तो अनेकान्तस्वरूप नहीं है वह सत् भी नहीं है, जैसे- प्रकाश का कमल। शङ्का-यद्यपि कमल आकाश में नहीं है तथापि तालाब में है। प्रतः उससे (कमल से) 'सत्त्व' हेतु की व्यावृत्ति नहीं हो सकती है ? समाधान- यदि ऐसा कहो तो यह कमल अधिकरण विशेषकी अपेक्षा से सत् और असत् दोनों रूप होने से अनेकान्तस्वरूप 4भभ भos 424

Loading...

Page Navigation
1 ... 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390