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न्याय-दीपिका
सहस्त्रीको छोड़कर कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है और न अकलङ्कदेव तथा विद्यानन्दके सिवाय कोई 'श्रीमदाचार्यपाद' नामके आचार्य ही हैं । वसुनन्दि ने भी यद्यपि 'प्राप्तमीमांसा' पर देवागमवृत्ति' टीका लिखी है परन्तु वह आप्तमीमांसाकी कारिकारोंका शब्दानुसारी अर्थस्फोट ही करती हैंउसमें कपिलादिकोंकी आप्ताभासताका विस्तारसे वर्णन नहीं है। अतः न्यायदीपिकाकारको 'प्राप्तमीमांसाविवरण से अष्टशती और अष्टसहस्त्री विवक्षित हैं। ये दोनों दार्शनिक टीकाकृतियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण और गूढ हैं । अष्टशती तो इतनी दुरूह और जटिल है कि बिना अष्टसहस्त्रीके उसके मर्मको समझना बहुत मुश्किल है। जैनदर्शनसाहित्यमें ही नहीं, समग्र भारतीय दर्शनसाहित्यमें इनकी जोड़का प्रायः बिरला ही कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ या टीकाग्रन्थ हो ।
राजवत्तिक और भाष्य-गौतमके न्यायसूत्रपर प्रसिद्ध नैयायिक उद्योतकरके 'न्यायकात्तिक' की तरह प्रा० उमास्वाति विरचित तत्वार्थसूत्रपर अकलङ्कदेवने गद्यात्मक 'तत्वार्थवात्तिक' नामक टीका लिखी है। जो राजवत्तिकके नामसे भी व्यवहृत होती है। और उसके वात्तिकोंपर उद्योतकरकी ही तरह स्वयं अकलङ्कदेवका रचागया भाष्य है जो 'तत्वार्थवात्तिकभाष्य या 'राजवात्तिकभाष्य' भी कहा जाता है। यह भाष्य राजवात्तिकके प्रत्येक वातिकका विशद व्याख्यान है। इसकीभाषा बड़ी सरल और प्रसन्न है जबकि प्रत्येक वात्तिक अत्यन्त गम्भीर और दुरूह है। एकही जगह अकलंकदेवकी इस चेतश्चमत्कारी प्रतिभाकी विविधताको पाकर सहृदय पाठक साश्चर्य आनन्दविभोर हो उठता है और श्रद्धासे उसका मस्तक नत होजाता है । अकलंकदेवने अपना यह राजवात्तिक आ० पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिको आधार बनाकर लिखा है जो तत्त्वार्थसूत्रकी समग्र टीकाओं में पहली टीका है उन्होंने उसके अर्थगौरवपूर्ण प्रायः प्रत्येक वाक्यको राजवात्तिकका वार्तिक बनाया है। फिरभी राजवात्तिकमें सर्वार्थसिद्ध से कुछभी पुनरुक्ति एवं निरर्थकता मालूम नहीं होती। राजवात्तिककी यह विशेषता है