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न्याय-दीपिका
युक्त्यनुशासनालङ्कार आदि दार्शनिक रचनाएँ उनकी बनाई हुई है। इनमें विद्यानन्दमहोदय, जो श्लोकवात्तिककी रचनासे भी पहलेकी विशिष्ट रचना है और जिसके उल्लेख तत्त्वार्थरलोकवात्तिक ( पृ० २७२, ३८५) तथा अष्टसहस्त्री ( पृ०२८६, २६० ) में पाये जाते हैं, अनुपलब्ध है। शेषकी रचनाएँ उपलब्ध हैं और सत्यशासनपरीक्षाको छोड़कर मुद्रित भी हो चुकी हैं। प्रा० विद्यानन्द अकलङ्कदेवके उत्तरकालीन और प्रभाचन्द्राचार्यके पूर्ववर्ती है। अतः इनका अस्तित्व-समय नवमी शताब्दी माना जाता है । अभिनव धर्ममूषणने न्यायदीपिकामें इनके श्लोकवात्तिक और भाष्यका कई जगह नामोल्लेख करके उनके वाक्योंको उद्धृत किया है।
प्रमाणपरीक्षा-विद्यानन्दकी ही यह अन्यतम कृति है। यह अकलङ्कदेवके प्रमाणसंग्रहादि प्रमाणविषयक प्रकरणोंका आश्रय लेकर रची गई है । यद्यपि इसमें परिच्छेद-भेद नहीं है तथापि प्रमाणमात्रको अपना प्रतिपद्य विषय बनाकर उसका अच्छा निरूपण किया गया है । प्रमाणका सम्यग्ज्ञानत्व लक्षण करके उसके भेद, प्रभेदों, प्रमाणका विषय तथा फल
और हेतुओंकी इसमें सुन्दर एवं विस्तृत चर्चा की गई है। हेतु-भेदोंके निदर्शक कुछ संग्रहश्लोकोंको तो उद्धृत भी किया है । जो पूर्ववर्ती किन्हीं जनाचार्योंके ही प्रतीत होते हैं। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' और अष्टसहस्त्री की तरह यहाँ भी प्रत्यभिज्ञानके दो ही भेद गिनाये हैं। जबकि अक
१ पूर्ववर्तित्वके लिए 'तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक मेरा द्वितीय लेख देखें, अनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११ पृ ३८० । देखो, न्यायकुमुद द्वि० भा० की प्रस्तावना पृ० ३० और स्वामी समन्तभद्र पृ० ४८ । ३ 'तद्विधैकत्वसादृश्यगोचरत्वेन निश्चतम्'-त० श्लो० पृ० १६० । ४ 'तदेवेदं तत्सदृशमेवेदमित्येकत्वसादृश्यविषयस्थ द्विविधप्रत्यभिज्ञानस्य - '-अष्टस० पृ० २७६ । ५ 'द्विविधं हि प्रत्यभिज्ञानं ' प्रमाणप० पृ० ६६ ।