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न्याय-दीपिका
प्रत्यक्षादिककी तरह स्मृति अविसंवादी है-विसंवाद रहित है, इसलिए भी वह प्रमाण है। क्योंकि स्मरण करके यथास्थान रक्खी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होने वाले व्यक्ति को स्मरण के विषय (पदार्थ) में विसंवाद-भूल जाना या अन्यत्र प्रवृत्ति करना 5 नहीं होता। जहाँ विसंवाद होता है वह प्रत्यक्षाभास की तरह
स्मरणाभास है। उसे हम प्रमाण नहीं मानते। इस तरह स्मरण नामका पृथक् प्रमाण है, यह सिद्ध हुआ।
प्रत्यभिज्ञान का लक्षण और उसके भेदों का निरूपण
अनुभव और स्मरणपूर्वक होने वाले जोड़ रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान 10 कहते हैं। 'यह' का उल्लेख करने वाला ज्ञान अनुभव है और 'वह'
का उल्लेखी ज्ञान स्मरण है। इन दोनों से पैदा होने वाला तथा पूर्व और उत्तर अवस्थानों में वर्तमान एकत्व, सादृश्य और वैलक्षण्य आदि को विषय करने वाला जो जोड़रूप ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान
है, ऐसा समझना चाहिए। जैसे वही यह जिनदत्त है, गौ के समान 15 गवय ( जङ्गली पशुविशेष) होता है, गाय से भिन्न भैंसा होता है, इत्यादिक प्रत्यभिज्ञान के उदाहरण हैं।
यहाँ पहले उदाहरण में, जिनदत्त की पूर्व और उत्तर अवस्थाप्रोंमें रहने वाली एकता प्रत्यभिज्ञान का विषय है। इसीको एकत्व
प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। दूसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई 20 गाय को लेकर गवय में रहने वाली सदृशता प्रत्यभिज्ञान का विषय है।
इस प्रकार के ज्ञान को सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कहते है। तीसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई गाय को लेकर भैंसा में रहने वाली विसदृशता प्रत्यभिज्ञान का विषय है। इस तरह का ज्ञान वैसादृश्य
प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार और भी प्रत्यभिज्ञान के 25 भेद अपने अनुभव से स्वयं बिचार लेना चाहिये। इन सभी प्रत्य