________________
तीसरा प्रकाश
१७७
भिज्ञानों में अनुभव और स्मरण की अपेक्षा होने से उन्हें अनुभव और स्मरणहेतुक माना जाता है।
किन्हीं का कहना है कि अनुभव और स्मरण से भिन्न प्रत्यभिज्ञान नहीं है। ( क्योंकि पूर्व और उत्तर अवस्थाओं को विषय करने वाला एक ज्ञान नहीं हो सकता है। कारण, विषय भिन्न है। दूसरी 5 बात यह है कि 'वह' इस प्रकार से जो ज्ञान होता है वह तो परोक्ष है और 'यह' इस प्रकार से जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष हैइसलिये भी प्रत्यक्ष और परोक्षरूप एक ज्ञान नहीं हो सकता है, किन्तु वे अनुभव और स्मरणरूप दो ज्ञान हैं।) यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि अनुभव तो वर्तमानकालीन पर्याय को ही विषय करता 10 है और स्मरण भूतकालीन पर्याय का द्योतन करता है। इसलिये ये दोनों अतीत और वर्तमान पर्यायों में रहने वाली एकता, सदृशता आदि को कैसे विषय कर सकते हैं ? अर्थात्-नहीं कर सकते है। प्रतः स्मरण और अनुभव से भिन्न उनके बाद में होने वाला तथा उन एकता, सदृशता आदि को विषय करने वाला जो जोड़रूप ज्ञान 15 होता है वही प्रत्यभिज्ञान है।
अन्य ( दूसरे वैशेषिकादि ) एकत्वप्रत्यभिज्ञान को स्वीकार करके भी उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव कल्पित करते हैं। वह इस प्रकार से है-जो इन्द्रियों के साथ अन्वय और व्यतिरेक रखता है वह प्रत्यक्ष है। अर्थात्-जो इन्द्रियों के होने पर होता है और उनके 20 अभाव में नहीं होता बह प्रत्यक्ष है, यह प्रसिद्ध है। और इन्द्रियों का अन्वय तथा व्यतिरेक रखने वाला यह प्रत्यभिज्ञान है, इस कारण वह प्रत्यक्ष है। उनका भी यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि इन्द्रियाँ वर्तमान पर्याय मात्र के विषय करने में ही उपक्षीण ( चरितार्थ ) हो जाने से वर्तमान और अतीत अवस्थाओं में रहने वाले 25