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न्यात-दीपिका
किन्तु इस शिलालेखके कोई १२ वर्ष वाद शक सं० १३०७ (१३८५ ई. में उत्कीर्ण हुए विजयनगरके उल्लिखित शिलालेख नं० २ में उनकप (तृतीय धर्मभूषणका) स्पष्टतया नामोल्लेख है। अतः यह सहीस अनुमान हो सकता है कि वे अपने गुरु वर्द्ध मानके पट्टाधिकारी शाके सम्वत् १२६५से१३०७ में किसी समय बन चुके थे। इस तरह अभिनः मि धर्मभूषणके साक्षात् गुरु श्रीवर्द्ध मानमुनीश्वर और प्रगुरु द्वितीय धर्म भूषण थे । अमरकीर्ति दादागुरु और प्रथमधर्मभूषण परदादा गुरु थे। और इसीसे मेरेख्यालमें उन्होंने अपने इन पूर्ववर्ती पूज्य प्रगुरु (द्वितीय धर्मभूषण त तथा परदादागुरु (प्रथमधर्मभूषण) से पश्चाद्वर्ती एवं नया बतलानेके लिघ अपनेको अभिनव विशेषणसे विशेपित किया जान पड़ता है जो कुछ ही यह अावश्य है कि वे अपने गृरुके प्रभावशाली और मुख्य शिष्य थे। समय-विचार
यद्यपि अभिनव धर्मभूषणकी निश्चित तिथि बताना कठिन है तथापि जो आधार प्राप्त हैं उनपरसे उनके समयका लगभग निश्चय होजाता है। अतः यहाँ उनके समयका विचार किया जाता है ।
विन्ध्यगिरिका जो शिलालेख प्राप्त है वह शक सम्वत १२६५ का उत्कीर्ण किया हुआ है । मैं पहले बतला आया हूँ कि इसमें प्रथम और द्वितीय इन दो ही धर्मभूषणोंका उल्लेख है और द्वितीय धर्मभूषणके शिप्य वर्द्ध मानका अन्तिमरूपसे उल्लेख है । तृतीय धर्मभूषणका उल्लेख उसमें नहीं पाया जाता । प्रो० हीरालालजी एम. ए. के उल्लेखानुसार द्वितीय धर्मभूषणकी निषद्या (निःसही) शकसं० १२६५में बनवाई गई हैं। अतः द्वितीय धर्मभूषणका अस्तित्वसमय शकसं०१२६५तक ही समझना चाहिए । मेरा अनुमान है कि केशववर्णीको अपनी गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका बनानेकी प्रेरणा एवं आदेश जिन धर्मभूषणसे मिला वे धर्मभूषण भी यही द्वितीय धर्मभुषण होना चाहिये। क्योंकि इनके