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पहला प्रकाश
१४३ हैं इसलिए वे उनके असाधारण धर्म कहे जाते हैं । वैसे दण्डादि पुरुष में मिले हुए नहीं हैं— उससे पृथक् हैं और इसलिए वे पुरुष के असाधारण धर्म नहीं हैं । इस प्रकार लक्षणरूप लक्ष्य के एक देश अनात्मभूत दण्डादि लक्षण में असाधारण धर्म के न रहने से लक्षण ( असाधारण धर्म ) अव्याप्त है ।
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इतना ही नहीं, इस लक्षण में प्रतिव्याप्ति दोष भी श्राता है । शालेयत्वादि रूप व्याप्त नाम का लक्षणाभास भी प्रसाधारणधर्म है । इसका खुलासा निम्न प्रकार है :
मिथ्या अर्थात् - सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं । उसके तीन भेद हैं -१ श्रव्याप्त, २ अतिव्याप्त और ३ असम्भवि । लक्ष्य के 10 एक देश में लक्षण के रहने को श्रव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे गायका शालेयत्व । शालेयत्व सब गायों में नहीं पाया जाता वह कुछ ही गायों का धर्म है, इसलिए श्रव्याप्त है । लक्ष्य और लक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं । जैसे गाय का ही पशुत्व ( पशुपना ) लक्षण करना । यह 'पशुत्व' गायों के 15 सिवाय अश्वादि पशुओं में भी पाया जाता है इसलिए 'पशुत्व' अतिव्याप्त है । जिसकी लक्ष्य में वृत्ति बाधित हो अर्थात् जो लक्ष्यमें बिलकुल ही न रहे वह असम्भव लक्षणाभास है । जैसे मनुष्य का लक्षण सींग । सींग किसी भी मनुष्य में नहीं पाया जाता । अतः वह असम्भव लक्षणाभास है । यहाँ लक्ष्य के एक देश 20 में रहने के कारण 'शावलेयत्व' श्रव्याप्त है, फिर भी उसमें असावारणवत्व रहता है- 'शाबलेयत्व' गाय के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं रहता — गाय में ही पाया जाता है । परन्तु वह लक्ष्यभूत समस्त गायों का व्यावर्त्तक - अश्वादि से जुदा करनेवाला नहीं हैकुछ ही गायों को व्यावृत्त कराता है । इसलिए अलक्ष्यभूत श्रव्याप्त 25 लक्षणाभास में प्रसाधारणधर्म के रहने के कारण प्रतिव्याप्ति भी