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पहला प्रकाश
१४६ शङ्का-यदि गृहीतग्राही ज्ञानको अप्रमाण मानेंगे तो घटको जान लेनेके बाद दूसरे किसी कार्य में उपयोगके लग जानेपर पीछे घटके ही देखनेपर उत्पन्न हुना पश्चाद्वर्ती ज्ञान अप्रमाण हो जायगा । क्योंकि धारावाहिक ज्ञानकी तरह वह भी गृहीतग्राही हैं--अपूर्वार्थग्राहक नहीं है ?
5 समाधान नहीं; जाने गये भी पदार्थमें कोई समारोप-संशय आदि हो जानेपर वह पदार्थ अदृष्ट नहीं जाने गयेके ही समान हैं। कहा भी है—'दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक्' [ परीक्षा० १-५ ] अर्थात् ग्रहण किया हुन्ना भी पदार्थ संशय आदिके हो जाने पर ग्रहण नहीं किये हुएके तुल्य है।
10 में उक्त लक्षणकी इन्द्रिय, लिङ्ग, शब्द और धारावाहिक ज्ञानमें अतिव्याप्तिका निराकरण कर देनेसे निर्विकल्पक सामान्यावलोकनरूप दर्शनमें भी अतिव्याप्तिका परिहार हो जाता है। क्योंकि दर्शन अनिश्चयस्वरूप होनेसे प्रमितिके प्रति करण नहीं है। दूसरी बात यह है, कि दर्शन निराकार ( अनिश्चयात्मक ) होता है और निराकारमें 15 ज्ञानपना नहीं होता। कारण, "दर्शन निराकार (निर्विकल्पक ) होता है और ज्ञान साकार ( सविकल्पक ) होता है ।" ऐसा आगमका वचन है। इस तरह प्रमाणका 'सम्यक् ज्ञान' यह लक्षण अतिव्याप्त नहीं है। और न अव्याप्त है। क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्षरूप अपने दोनों लक्ष्योंमें व्यापकरूपसे विद्यमान रहता है। तथा 20 असम्भवी भी नहीं है, क्योंकि लक्ष्य ( प्रत्यक्ष और परोक्ष ) में उसका रहना बाधित नहीं है-वहाँ वह रहता है। अतःप्रमाणका उपर्युक्त लक्षण बिल्कुल निर्दोष है।
प्रमाणके प्रामाण्यका कथन
शङ्का-प्रमाणका यह प्रामाण्य क्या है, जिससे 'प्रमाण' प्रमाण 25 कहा जाता है, अप्रमाण नहीं ?