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दूसरा प्रकाश
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घटज्ञान का घट ही विषय है, पट नहीं है ? हम तो ज्ञान को अर्थजन्य होने के कारण श्रर्थजन्यता को ज्ञानमें विषयका प्रतिनियामक मानते हैं और जिससे ज्ञान पैदा होता है उसीको विषय करता है, अन्य को नहीं, इस प्रकार व्यवस्था करते हैं । किन्तु उसे श्राप नहीं मानते हैं ?
प्रतिनियमक मानते हैं ।
समाधान हम योग्यता को विषय का जिस ज्ञान में जिस अर्थ के ग्रहण करने की योग्यता (एक प्रकार की शक्ति) होती है वह ज्ञान उस ही अर्थ को विषय करता है - श्रन्य को नहीं ।
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शंका- योग्यता किसे कहते हैं ?
समाधान - अपने आवरण (ज्ञानको ढकने वाले कर्म) के क्षयोपशमको योग्यता कहते हैं । कहा भी हैं :- अपने प्रावरण कर्म के क्षयोपशमरूप योग्यता के द्वारा ज्ञान प्रत्येक पदार्थ की व्यवस्था करता है। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा में घटज्ञानावरण कर्म के हटने से उत्पन्न हुआ घटज्ञान घट को ही विषय करता है, पट को नहीं। इसी प्रकार दूसरे पटादिज्ञान भी अपने अपने क्षयोपशम को लेकर अपने अपने ही विषयों को विषय करते हैं । अतः ज्ञान को प्रर्थजन्य मानना अनावश्यक और प्रयुक्त है ।
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'ज्ञान अर्थ के आकार होने से अर्थ को प्रकाशित करता है।' यह मान्यता भी उपर्युक्त विवेचन से खंडित हो जाती है । क्योंकि दीपक, 20 मणि आदि पदार्थों के आकार न होकर भी उन्हें प्रकाशित करते हुये देखे जाते हैं । अतः अर्थाकारता और अर्थजन्यता ये दोनों ही प्रमाणता में प्रयोजक नहीं हैं । किन्तु श्रर्थाव्यभिचार ही प्रयोजक है । पहले जो सविकल्पक के विषयभूत सामान्य को प्रपरमार्थ बता कर सविकल्पक का खण्डन किया है वह भी ठीक नहीं है; क्योंकि किसी
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