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न्याय-दीपिका
नगर साम्राज्यके स्वामी प्रथम देवराय और उनकी पत्नी भीमादेवी जिन वर्द्धमानगुरुके शिष्य धर्मभूषणके परम भक्त थे और जिन्हें अपना गा मानते थे तथा जिनसे प्रभावित होकर जैनधर्मकी अतिशय प्रभावना प्रवृत्त रहते थे वे यही तृतीय धर्मभूषण न्यायदीपिकाकार हैं। पद्मा वती-वस्तीके ए क लेखसे ज्ञात होता है कि "राजाधिराजपरमेश्वर देव राय प्रथम वर्द्धमानमुनिके शिष्य धर्म भूषण गुरुके, जो बड़े विद्वान् थे चरणों में नमस्कार किया करते थे ।" इसी बातका समर्थन शकसं २४४० में अपने 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र' को समाप्त करनेवाले कति वर्द्ध मानमुनीन्द्रके इसी ग्रन्थगत निम्न श्लोकसे भी होता है:"राजाधिराजपरमेश्वरदेवरायभूपालमौलिलसदंघ्रिसरोजयुग्मः । . श्रीवर्धमानमुनिवल्लभमौढ्यमुख्यः श्रीधर्मभूषणसुखी जयति क्षमाढयः ॥ __ यह प्रसिद्ध है कि विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही 'राजाधिराजपरमेश्वर की उपाधि से भूषित थे। इनका राज्य समय सम्भवतः १४१८ ई० तक रहा है क्योंकि द्वितीय देवराय ई० १४१६ से १४४६ तक माने जाते हैं । अतः इन उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि वर्द्ध मानके शिष्य धर्मभूषण तृतीय (गन्थकार) ही देवराय प्रथमके द्वारा सम्मानित थे । प्रथम अथवा द्वितीय धर्मभूषण नहीं ; क्योंकि वे वर्तमानके शिष्य
१ प्रशस्तिसं०पृ० १२५ से उद्धृत । २-३ देखो,डा० भास्कर आनन्द सालेतोरका 'Mediaeval Jainism' P. 300-301 । मालूम नहीं डाः सा० ने द्वितीय देवराय (१४१६-१४४६ ई०) की तरह प्रथम देवरायः । के समय का निर्देश क्यों नहीं किया ? ४ डा० सालेतोर दो ही धर्मभूषण मानते हैं और उनमें प्रथम का समय १३७८ ई० और दूसरे का ई० १४०३ बतलाते हैं तथा वे इस झमेले में पड़ गए हैं कि कौन से धर्मभूषण का सम्मान देवराय प्रथमके द्वारा हुआ था ? (देखो, मिडि यावल जैनिज्म पृ० ३००)। मालूम होता है कि उन्हें विजयनगर का