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न्याय-दीपिका
प्रकाशके पुष्पिकावाक्यमें 'अभिनव' विशेषण इनके नामके साथ पाये जाते हैं । जिससे मालूम होता हैं कि न्यायदीपिकाके रचयिता धर्मभूषण अभि नव और यति दोनों कहलाते थे। जान पड़ता है कि अपने पूर्ववर्ती धर्म भूषणोंसे अपनेको व्यावृत्त करनेके लिये 'अभिनव' विशेषण लगाया है। क्योंकि प्राय: ऐसा देखा जाता है कि एक नामके अनेक व्यक्तियोंमें अपने को जुदा करने के लिये कोई उपनाम रख लिया जाता है । अतः 'अभिनव न्यायदीपिकाकारका एक व्यावर्त्तक विशेषण या उपनाम समझना चाहिए। जैनसाहित्य में ऐसे और भी कई प्राचार्य हुए हैं जो अपने नामके साथ अमिनव विशेषण लगाते हुए पाये जाते हैं। जैसे अभिनव पण्डिताचार्य ( शक० १२३३ ) अभिनव श्रुतमुनि' अभिनव गुणभद्र' और अभिनव पण्डितदेव आदि । अतः पूर्ववर्ती अपने नामवालोंसे व्यावृत्ति के लिये 'अभिनव' विशेषण यह एक परिपाटी है। 'यति' विशेषण तो स्पष्ट ही है क्योंकि वह मुनिके लिये प्रयुक्त किया जाता है। अभिनव धर्मभूषण अपने गुरु श्रीवर्द्धमान भट्टारकके पट्टके उत्तराधिकारी हुए थे और वे कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नायमें हुए हैं । इसलिये इस विशेषणके द्वारा यह भी निर्धान्त ज्ञात हो जाता है कि ग्रन्थकार दिगम्बर जैन मुनि थे श्रीर भट्टारक नामसे लोकविश्रुत थे।
१ देखो, शिलालेख० नं० ४२१ । २ देखो, जनशिलालेखसं० पृ० २०१, शिलाले० १०५ (२४५) । ३ देखो, 'सी. पी. एण्ड बरार कैटलाग' रा० ब० हीरालालद्वारा सम्पादित । ४ देखो, जैनशिलालेख सं० पृ० ६४५ शिलालेख नं० ३६२ ( २५७ ) ।
५ " शिष्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणदेशिकः । . भट्टारकमुनिः श्रीमान् शल्यत्रयविवर्जितः ॥"
-विजयनगरशिला० नं० २।