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न्याय-दीपिका
तत्त्वार्थभाष्य या तत्त्वार्थमहाभाष्य भी कहा जाता है और आत्ममीमांसा उसका पहला प्रकरण है। परन्तु जनश्रुतिका पुष्ट और पुराना कोई अाधार नहीं है । मालूम होता है कि इसके कारण पिछले ग्रंथोल्लेख ही है अभी गत ३१ अक्तूबर (सन् १९०४) में कलकत्ता में हुए वीरशासनमहोत्सवपर श्री संस्करण सेठी मिले । उन्होंने कहा कि गन्धहस्ति महाभाष्य एक जगह सुरक्षित है और वह मिल सकता है । उनकी इस बातको सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई और प्रेरणा की कि उसकी उपलब्धि आदिकी पूरी कोशिश करके उसकी सूचना हमें दें। इस कार्य में होनेवाले व्ययके भारको उठाने के लिये वीरसेवा मन्दिर, सरसावा प्रस्तुत है । परन्तु उन्होंने आज तक कोई सूचना नहीं की। इस तरह जनश्रुतिका आधारभूत पुष्ट प्रमाण नहीं मिलनेसे महाभाष्यका अस्तित्व संदिग्ध कोटिमें आज भी स्थित है।
प्रा० अभिनव धर्मभूषणके सामने अभयचन्द्र सूरिके उपर्युक्त उल्लेख रहे हैं और उन्हींके आधारपर उन्होंने न्यायदीपिकामें स्वामिसमन्तभद्रकृत महाभाष्यका उल्लेख किया जान पड़ता है । उन्हें यदि इस ग्रन्थकी प्राप्ति हुई होती तो वे उसके भी किसी वाक्यादिको जरूर उध्दृत करते और अपने विषयको उससे ज्यादा प्रमाणित करते । अतः यह निश्चयरूपसे कहा जा सकता है कि प्राचार्य धर्मभूषण यतिका उल्लेख महाभाष्यकी प्राप्तिहालतका मालूम नही होता। केवल जनश्रुतिके आधार और उसके भी आधारभूत पूर्ववर्ती ग्रन्थोलेखोंपरसे किया गया जान पड़ता है। __४. जैनेन्द्रब्याकरण-यह आचार्य पूज्यपादका, जिनके दूसरे नाम देवनन्दि और जिनेन्द्रबुद्धि, प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण व्याकरणग्रन्थ
१ “यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः।। श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ।।"
श्रवण शि० नं० ४० (घ४)