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न्याय-दीपिका
पहली शताब्दीके विद्वान् हैं । न्यायदीपिकाकारने तत्त्वार्थसूत्रके अनेक सूत्रोंको न्यायदी० (पृ० ४,३४,३६,३८,११३,१२२) में बड़ी श्रद्धाके साथ उल्लेखित किया है और उसे महाशास्त्र तक भी कहा है, जो उपयुक्त ही है। इतना ही नहीं, न्यायदीपिकाकी भव्य इमारत भी इसी प्रतिष्ठित तत्त्वार्थसूत्रके 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्रका प्राशय लेकर निर्मित की गई है।
प्राप्तमीमांसा–स्वामी समन्तभद्रकी उपलब्धि कृतियोंमें यह सबसे प्रधान और असाधारण कृति है । इसे 'देवागमस्तोत्र भी कहते हैं । इसमें दश परिच्छेद और ११४ पद्य (कारिकाएँ) हैं। इसमें प्राप्त (सर्वज्ञ) की मीमांसा-परीक्षा की गई है। जैसा कि उसके नामसे ही प्रकट है। अर्थात् इसमें स्याद्वादनायक जैन तीर्थकरको सर्वज्ञ सिद्ध करके उनके स्याद्वाद (अनेकान्त) सिद्धान्तकी सयुक्तिक सुव्यवस्था की है और स्याद्वादविद्वेषी एकान्तवादियोंमें प्राप्ताभासत्व (असावश्य) बतलाकर उनके एकान्त सिद्धान्तोंकी बहुत ही सुन्दर युक्तियोंके साथ आलोचना की है। जैनदर्शनके आधारभूत स्तम्भ ग्रन्थोंमें प्राप्तमीमांसा पहला ग्रन्थ है। इसके ऊपर भट्ट अकलङ्कदेवने 'अष्टशती' विवरण (भाष्य), प्रा० विद्यानन्दने 'अष्टसहस्री' (आप्तमीमांसालंकार या देवगमालंकार) और वसुनन्दिने 'देवागमवृत्ति' टीकाएँ लिखी हैं। ये तीनों टीकाएं उपलब्ध भी हैं। पण्डित जयचन्दजीकृत इनकी एक टीका हिन्दी भाषामें भी है। श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने इसकी दो और अनुपलब्ध टीकाओं की सम्भावना की है। एक तो वह जिसका संकेत प्रा० विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके अन्तमें 'अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ केचिदिदं मंगलवचनमनुतन्यते' इस वाक्यमें आए हुए 'केचित्' शब्दके द्वारा किया है। और
१ देखो, स्वामीसमन्तभद्र । श्वेताम्बर विद्वान् श्रीमान् पं० सुखलालजी इन्हें भाष्यको स्वोपज्ञ माननेके कारण विकमकी तीसरीसे पाँचवीं शताब्दीका अनुमानित करते हैं । देखो, ज्ञानबिन्दुको प्रस्तावना ।
१ स्वामीसमन्तभद्र पृ० १६६, २०० ।