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न्याय-दीपिका
(प्रत्यक्षभिन्नत्व) प्रत्यक्षघटित है। अकलङ्कदेवने प्रत्यक्षका ऐसा लक्षण बनाया जिससे वह दोष नहीं रहा। उन्होंने कहा कि ज्ञान विशद हैस्पष्ट है वह प्रत्यक्ष है। यह लक्षण अपने आपमें स्पष्ट तो है ही, साथमें बहुत ही संक्षिप्त और अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषोंसे पूर्णतः रहित भी है। सूक्ष्मप्रज्ञ अकलङ्कका यह अकलङ्क लक्षण जैनपरम्परामें इतना प्रतिष्ठित और व्यापक हुआ कि दोनों ही सम्प्रदायोंके श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्वानोंने बड़े आदरभावसे अपनाया है। जहाँ तक मालूम है फिर दूसरे किसी जैनतार्किकको प्रत्यक्षका अन्य लक्षण बनाना आवश्यक नहीं हुआ और यदि किसीने बनाया भी हो तो उसकी उतनी न तो प्रतिष्ठा हुई है और न उसे उतना अपनाया ही गया है। अकलङ्कदेवने अपने प्रत्यक्ष लक्षणमें उपात्त वैशद्यका' भी खुलासा कर दिया है । उन्होंने अनुमादिककी अपेक्षा विशेष प्रतिभास होनेको वैशद्य कहा है। आ० धर्मभूषणने भी अकलङ्कप्रतिष्ठित इन प्रत्यक्ष और वैशद्यके लक्षणोंको अपनाया है और उनके सूत्रात्मक कथनको और अधिक स्फुटित किया है।
६. अर्थ और आलोककी कारणता
बौद्ध ज्ञानके प्रति अर्थ और आलोकको कारण मानते हैं। उन्होंने चार प्रत्ययों (कारणों) से सम्पूर्ण ज्ञानों (स्वसंवेदनादि) की उत्पत्ति वणित की है। वे प्रत्यय ये हैं :-१ समनन्तरप्रत्यय, २ आधिपत्यप्रत्यय, ३ आलम्बनप्रत्यय और ४ सहकारिप्रत्यय । पूर्वज्ञान उत्तरज्ञानकी
१ “प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानम्" -लघीय० का० ३। प्रत्यलक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा।"-न्यायवि० का० ३ । २ "अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद्वैशचं मतं बुद्धेरवैशद्य मतः परम् ।।"-लघीय० का०४ ।