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न्याय-दीपिका
और इसलिए यह कहा जा सकता है पात्रस्वामीकी जो रचना (त्रिलक्षा कदर्थन) शान्तरक्षितके सामने रही वह अकलङ्कदेवके भी सामने अवर रही होगी। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बौद्ध विद्वा शान्तरक्षितके लिए जो उक्त वात्तिकका कर्ता निन्तिरूपसे पात्रस्वाम विवक्षित हैं वही अकलङ्कदेवको 'स्वामी' पदसे अभिप्रेत हैं। इसलि स्वामी तथा 'अन्यथानुपपन्नत्व' पद (वात्तिक) का सहभाव और शान्ति रक्षितके सुपरिचित उल्लेख इस बातको माननेके लिए हमें सहायता कर हैं कि उपयुक्त पहली कारिका पात्रस्वामीकी ही होनी चाहिए। अकलब
और शान्तरक्षितके उल्लेखोंके बाद विद्यानन्दका उल्लेख आता है । जिसके द्वारा उन्होंने उक्त वात्तिकको वात्र्तिकारका बतलाया है। यह वात्तिककार राजवात्तिककार अकलङ्कदेव मालूम नहीं होते'; क्योंकि उक्त वात्तिक (कारिका) राजवात्तिकमें नहीं है, न्यायविनिश्चयमें है। विद्यानन्दने राजवात्तिकके पदवाक्यादिको ही राजवात्तिककार (तत्त्वार्थवात्तिककार) के नामसे उद्धत किया है, न्यायविनिश्चय आदिके नहीं। अतः विद्यानन्द का 'वात्तिककार' पदसे अन्यथानुपपत्ति' वात्तिकके कर्ता वात्तिककारपात्रस्वामीही अभिप्रेत हैं। यद्यपि वात्तिककारसे न्यायविनिश्चयकार अकलङ्कदेवका ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि न्यायविनिश्चयमें वह वार्तिक मूलरूपमें उपलब्ध है, किन्तु विद्यानन्दने न्यायविनिश्चयके पदवाक्यादिको 'न्यायविनिश्चय' के नामसे अथवा 'तदुक्तमकलङ्कदेवैः' आदिरूपसे ही सर्वत्र उद्धृत किया है। अतः वात्तिककारसे पात्रस्वामी ही विद्यानन्दको विवक्षित जान पड़ते हैं। यह हो सकता है कि वे 'पात्रस्वामी' नामकी अपेक्षा वात्तिक और वात्तिककार नामसे अधिक परिचित होंगे, पर उनका अभिप्राय उसे राजवात्तिककारके कहनेका तो प्रतीत नहीं होता।
१ कुछ विद्वान् वात्तिककारसे राजवात्तिककारका ग्रहण करते हैं। देखो, न्यायकुमु० प्र० प्र० पृ० ७६ और अकलङ्क० टि० पृ० १६४ ।