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प्रस्तावना
पदमें सन्नहित है। अकलङ्कदेवने' उसका वैसा विवरण भी किया है । और विद्यानन्दने तो उसे स्पष्टतः हेतुलक्षणका ही प्रतिपादक कहा है। प्रकलङ्कके पहिले एक पात्रकेशरी या पात्रस्वामी नामके प्रसिद्ध जैनाचार्य भी हो गये हैं जिन्होंने त्रैरूप्यका कदर्थन करनेके लिए "त्रिलक्षणकदर्थन' नामक ग्रन्थ रचा है और हेतुका एकमात्र 'अन्यथानुपपन्नत्व' लक्षण स्थिर किया है। उनके उत्तरवर्ती सिद्धसेन' अकलङ्क, वीरसेन , कुमारनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवसूरि और हेमचन्द्र
आदि सभी जैनतार्किकोंने अन्यथानुपपन्नत्व (अविनाभाव) को ही हेतुका लक्षण होनेका सबलताके साथ समर्थन किया है । वस्तुतः अविनाभाव ही हेतुकी गमतामें प्रयोजक है । त्रैरूप्य या पाञ्चरूप्य तो गुरुभूत एवं अविनाभावका ही विस्तार हैं । इतना ही नहीं दोनों अव्यापक भी हैं। कृत्तिकोदयादि हेतु पक्षधर्म नहीं हैं फिर भी अविनाभाव रहनेसे गमक देखे जाते हैं। आ० धर्मभूषणने भी त्रैरूप्य और पाञ्चरूप्यकी सोपपत्तिक पालोचना करके 'अन्यथानुपपन्नत्व' को ही हेतुलक्षण सिद्ध किया है और निम्न दो कारिकाओंके द्वारा अपने वक्तव्यको पुष्ट किया है :
१ "सपक्षेणैव साध्यस्य साधादित्यनेन हेतोस्त्रलक्षण्यम्, अविरोधात् इत्यन्यथानुपपत्तिं च दर्शयता केवलस्य त्रिलक्षणस्यासाधनत्वमुक्तं तत्पुत्रत्वादिवत् । एकलक्षणस्य तु गमकत्वं “नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते” इति बहुलमन्यथानुपपत्तेरेव समाश्रयणात् । –अष्टश० आप्तमी० का० १०६ । २ "भगवन्तो हि हेतुलक्षणमेव प्रकाशयन्ति, स्याद्वादस्य प्रकाशितत्वात् ।”–अष्टस० पृ० २८६ । ३ सिद्धसेनने 'अन्यथानुपपन्नत्व' को 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्'-(न्यायवा०का० २१) शब्दों द्वारा दोहराया है और 'ईरितम्' शब्दका प्रयोग करके उसकी प्रसिद्धि एवं अनुसरण ख्यापित किया है । ४ देखो, धवला० पु० १३, पृ० २४६ ।