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प्रस्तावना
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किन्हीं नैयायिकोंकी है। आगे चलकर हमें उद्योतकरके न्यायवात्तिकमें खण्डन सहित तीन अवयवोंकी मान्यताका निर्देश मिलता है। यह मान्यता बौद्ध विद्वान् दिग्नागकी है। क्योंकि वात्स्यायनके बाद उद्योतकरके पहले दिग्नागने ही अधिकसे अधिक तीन अवयव स्वीकृत किये हैं। सांख्यविद्वान् माठर यदि दिग्ना गके पूर्ववर्ती हैं तो तीन अवयवोंकी मान्यता माठरकी समझना चाहिए। वाचस्पति मिश्रने दो अवयव (हेतु और दष्टान्त) की मान्यताका उल्लेख किया है और तीन अवयवनिषेधकी तरह उसका निषेध किया है। यह द्वयवयवकी मान्यता बौद्ध तार्किक धर्मकीत्तिकी है, क्योंकि हेतुरूप एक अवयवके अतिरिक्त हेतु और दृष्टान्त दो अवयवोंको भी धर्मकीत्तिने ही स्वीकार किया है तथा दिग्नागसम्मत पक्ष, हेतु और दृष्टान्तमें से पक्ष (प्रतिज्ञा) को निकाल दिया है। अतः वाचस्पति मिश्रने धर्मकीत्तिकी ही द्वयवयव मान्यताका उल्लेख किया है और उसे प्रतिज्ञाको माननेके लिए संकेत किया है। यद्यपि जैनविद्वा
१ "अपरे त्र्यवयवमिति XXXव्यवयवमपि वाक्यं यथा न भवति तथोपनयनिगमनयोरर्थान्तरभावं वर्णयन्तो वक्ष्यामः ।"-न्यायवा० पृ.१०७, १०८ । २ “पक्षहेतुदृष्टान्तवचनैहि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यते इति........ एतान्येव त्रयोऽवयवा इत्येच्यन्ते ।"-न्यायप्र० पृ० १,२ । ३ “पक्षहेतुदृष्टान्ता इति त्र्यवयवम् ।”- माठरवृ० का० ५ । ४ "त्र्यवयवग्रहणमुपलक्षणार्थम्, द्वयवयवमपीत्यपि दृष्टव्यम् ... ... ...त्र्यवयवमपीत्यपिना द्वयवयवप्रतिषेध समुच्चिनोतिउपनयनिगमनयोरित्यत्र प्रतिज्ञाया अपीति दृष्टव्यम् ।”—न्यायवा० तत्प० पृ० २६६, २६७ । ५ "अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्गं प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि..।"-वादन्या० पृ० ६१ । “तद्भावहेतुभावौ हि दृष्टान्ते तदवेदिनः । ख्याप्येते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवल: ।"-प्रमाणवा० १-१२८ ।