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प्रस्तावना
तदध्यवसाय ये तीनों मिलकर अथवा प्रत्येक भी प्रमाणतामें कारण नहीं हैं। क्योंकि अर्थ ज्ञानक्षणको प्राप्त न होकर पहले ही नष्ट हो जाता है और ज्ञान अर्थक अभावमें ही होता है, उसके रहते हुए नहीं होता, इसलिए तदुत्पत्ति ज्ञान-प्रामाण्य में प्रयोजक नहीं है। ज्ञान अमूर्त है, इसलिए उसमें प्राकार सम्भव नहीं है । मूर्तिक दर्पणादिमें ही आकार देखा जाता है । अत: तदाकारता भी नहीं बनती है। ज्ञान में अर्थ नहीं और न अर्थ ज्ञानात्मक है जिससे ज्ञानके प्रतिभासमान होने पर अर्थका भी प्रतिभास हो जाय । अतः तदध्यवसायभी उत्पन्न नहीं होता । जब ये तीनों बनते ही नहीं तब वे प्रामाण्यके प्रति कारण कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं। अतएव जिस प्रकार अर्थ अपने कारणोंसे होता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने (इन्द्रिय-क्षयोपशमादि) कारणों से होता है । इसलिए संवाद (अर्थव्यभिचार) को ही ज्ञानप्रामाण्यका कारण मानना सङ्गत और उचित है ।' अकलङ्कदेवका यह सयुक्तिक निरूपण ही उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द आदि सभी जैन नैयायिकोंके लिए आधार हुआ है। धर्मभूषणने भी इसी पूर्वपरम्पराका अनुसरण करके बौद्धोंके अर्थालोककारण वादकी सुन्दर समालोचना की है।
तत्कार्यं तदभाव एव भावात्, तद्भावे चाऽभावात् भविष्य नार्थसारूप्यभृद्विज्ञानम्, अमूर्त्तत्वात् । मूर्ती एव हि दर्पणादयः मूर्तमुखादिप्रतिबिम्बधारिणो दृष्टाः, नामूर्तं मूर्तप्रतिबिम्बभृत्, अमूतं च ज्ञानम्, मूर्तिधर्माभावात् । न हि ज्ञानेऽर्थोऽस्ति तदात्मको वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने प्रतिभासेत शब्दवत् । ततः तदध्यवसायो न स्यात । कथमेतदविद्यमानं त्रितयं ज्ञानप्रामाण्यं प्रत्युपकारकं स्यात् अलक्षण त्वेन ?" लघीय० स्वो० का० ५८ । १ "स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा । तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वतः ।।-लघीय०का० ५६ ।