________________
प्रस्तावना
३५
मीमांसक दर्शन' जहाँ केवल धर्मज्ञताका निषेध करता है और सर्वज्ञताके मानमें इष्टापत्ति प्रकट करता है वहाँ बौद्धदर्शनमें सर्वज्ञताको अनपयोगी बतलाकर धर्मज्ञता को प्रश्रय दिया गया है । यद्यपि शान्तरक्षित प्रभृति बौद्ध ताकिकों ने सर्वज्ञताका भी साधन किया है। पर वह गौण है । मुख्यतया बौद्धदर्शन धर्मज्ञवादी ही प्रतीत होता है।
जैनदर्शनमें आगमग्रन्थों और तर्क ग्रन्थोंमें सर्वत्र धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनोंका ही प्रारम्भसे प्रतिपादन एवं प्रबल समर्थन किया गया है । षट्खण्डागमसूत्रोंमें" सर्वज्ञत्व और धर्मज्ञत्वका स्पष्टतः समर्थन मिलता है। आ० कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें विस्तृतरूपसे सर्वज्ञताकी सिद्धि की है। उत्तरवर्ती समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलङ्क, हरिभद्र, विद्यानन्द प्रभृति जैन तार्किकोंने धर्मज्ञत्वको सर्वज्ञत्वके भीतरही गभित करके सर्वज्ञत्व पर महत्वपूर्ण प्रकरण लिखे हैं। समन्तभद्र की प्राप्तमीमांसाको तो अकलङ्कदेवने" 'सर्वज्ञविशेषपरीक्षा' कहा है। कुछ भी हो, सर्वज्ञताके
१ "धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ।।"-तत्त्वसं० का० ३१२८ । तत्त्वसंग्रहमें यह श्लोक कुमारिलके नामसे उद्धृत हुआ है। २ "तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीटसंख्यापरिज्ञाने तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्ठो न तु सर्वस्य वेदकः ॥"प्रमाणवा० २-३१, ३२ । ३ "स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते । साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वज्ञोऽपि प्रतीयते ।"-तत्त्वसं० का ३३०६ । ४ “मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापकहेतुज्ञत्वसाधनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः अशेषार्थपरिज्ञातृत्वसाधनमस्य तत् प्रासङ्गिकम् ।” तत्त्वसं० पं० पृ० ८३३ । ५ “सव्वलोए सव्वजीवे सव्व भागे सव्वं समं जाणदि पस्सदि...''- खट्खं० पयडिअणु० सू० ७८ । ६ देखो, प्रवचन-- सार, ज्ञानमीमीमांसा । ७ देखो, अष्टश० का० ११४ ।