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न्याय-दीपिका
चाहिए । दूसरे, विस्मरणादिरूप समारोपका वह व्यवच्छेद करती है इसलिए भी वह प्रमाण है। तीसरे अनुभव तो वर्तमान अर्थको ही विषय करता है और स्मृति अतीत अर्थको विषय करती है। अतः स्मृति कथंचिद् अगृहीतग्राही होनेसे प्रमाण ही है।
१६. प्रत्यभिज्ञान
पूर्वोत्तरविवर्त्तवर्ती वस्तुको विषय करनेवाले प्रत्ययको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रत्यवमर्श, संज्ञा और प्रत्यभिज्ञा ये उसीके पर्याय नाम हैं। बौद्ध चूंकि क्षणिकवादी हैं इसलिए वे उसे प्रमाण नहीं मानते हैं । उनका कहना है कि पूर्व और उत्तर अवस्थाोंमें रहनेवाला जब कोई एकत्व है नहीं तब उसको विषय करनेवाला एक ज्ञान कैसे हो सकता है ? अतः 'यह वही है' यह ज्ञान सादृश्यविषयक है । अथवा प्रत्यक्ष और स्मरणरूप दो ज्ञानोंका समुच्चय है । 'यह' अंशको विषय करनेबाला ज्ञान तो प्रत्यक्ष हैं और 'वह' अंशको ग्रहण करनेवाला ज्ञानस्मरण है, इस तरह वे दो ज्ञान हैं । अतएव यदि एकत्वविषयक ज्ञान हो भी तो वह भ्रान्त हैअप्रमाण है। इसके विपरीत न्याय-वैशेषिक और मीमांसक जो कि स्थिरवादी हैं, एकत्व विषयक ज्ञानको प्रत्यभिज्ञानात्मक प्रमाण तो मानते हैं। पर वे उस ज्ञानको स्वतंत्र प्रमाण न मानकर प्रत्यक्ष ज्ञमाण स्वीकार करते हैं । जैनदर्शनका मन्तव्य है कि प्रत्यभिज्ञान न तो बौद्धोंकी तरह अप्रमाण
१ "ननु च तदेवेत्यतीतप्रतिभासस्य स्मरणरूपत्वात्, इदमिति संवेदनस्य प्रत्यक्षरूपत्वात् संवेदनद्वितयमेवैतत् तादृशमेवेदमिति स्मरणप्रत्यक्षसंवेदनद्वितयवत् । ततो नैकंज्ञानं प्रत्यभिज्ञाख्यं प्रतिपद्यमानं सम्भवति ।" -प्रमाणप० पृ० ६६ । २ देखो, न्यायदी० पृ० ५८का फुटनोट। ३ “स्मरणप्रत्यक्षजन्यस्य पूर्वोत्तरविवर्त्तवत्यैकद्रव्यविषयस्य प्रत्यभिज्ञानस्यैकस्य सुप्रतीतत्वात् । न हि तदिति स्मरणं तथाविधद्रव्यव्यवसायात्मकं तस्यातीत