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प्रस्तावना
जा चुका है कि हरिभद्र और विद्यानन्द आदि ताकिकोंने अपने तर्क-ग्रन्थों में भी मंगल करने का समर्थन और उसके विविध प्रयोजन बतलाये हैं।
उपर्युक्त यह मंगल मानसिक, वाचिक और कायिकके भेद से तीन प्रकार का है। वाचिक मंगल भी निबद्ध और अनिबद्ध रूप से दो तरह का है । जो ग्रन्थके आदिमें ग्रन्थकारके द्वारा श्लोकादिककी रचनारूपसे इष्ट-देवता-नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है वह वाचिक निबद्ध मंगल है और जो श्लोकादिककी रचना के बिना ही जिनेन्द्र-गुण-स्तवन किया जाता है वह अनिबद्ध मंगल है !
प्रकृत न्यायदीपिकामें अभिनव धर्मभूषणने भी अपनी पूर्व परम्पराका अनुसरण किया है और मंगलाचरणको निबद्ध किया है ।
२. शास्त्रको त्रिविध प्रवृत्ति
शास्त्रकी त्रिविध ( उद्देश, लक्षण-निर्देश और परीक्षारूप ) प्रवृत्तिका कथन सबसे पहले वात्स्यायनके 'न्याय भाष्य' में दृष्टिगोचर होता है। प्रशस्तपादभाष्यकी टीका 'कन्दली' में श्रीधरने उस त्रिविध प्रवृत्तिमें उद्देश
और लक्षणरूप द्विविध प्रवृत्तिको माना है और परीक्षाको अनियत कहकर निकाल दिया है । इसका कारण यह है कि श्रीधरने जिस प्रशस्तपाद भाष्यपर अपनी कंदली टीका लिखी है वह भाष्य और उस भाष्यका
आधारभूत वैशेषिकर्शनसूत्र पदार्थों के उद्देश और लक्षणरूप हैं, उनमें परीक्षा नहीं है। पर वात्स्यायनने जिस न्यायसूत्रपर अपना न्यायभाष्य लिखा है उसके सभी सूत्र उद्देश, लक्षण और परीक्षात्मक हैं । इसलिये वात्स्या
१ देखो, धवला १-१-१, पृ० ४१ और प्राप्तपरीक्षा पृ० ३ ।
२ न्यायभाष्य पृ० १७, न्यायदीपिका परिशिष्ट पृ० २३६ । ‘पदार्थव्युत्पादनप्रवृत्तस्य शास्त्रस्य उभयथा प्रवृत्ति:-उद्देशो लक्षणञ्च । परीक्षायास्तु न नियमः । -कन्दली पृ० २६ ।