________________
प्रस्तावना
प्रायः सभी दर्शनकारोंने प्रमाणको स्वीकार किया है। परन्तु वह प्रमिति किसके द्वारा होती है अर्थात् प्रमितिका करण कौन है ? इसे सबने अलग अलग बतलाया है । नैयायिक और वैशेषिकोंका कहना है कि अर्थज्ञप्ति इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षसे होती है इसलिए सन्निकर्ष प्रमितिका करण है। मीमांसक सामान्यतया इन्द्रियको,सांख्य इन्द्रियवृत्तिको और बौद्ध सारूप्य एवं योग्यताको प्रमितिकरण बतलाते हैं । समन्तभद्र ने 'स्वपरावभासक' ज्ञानको प्रमितिका अव्यवहितकरण प्रतिपादन किया है। समन्तभद्र के उत्तरवर्ती पूज्यपादने भी स्वपरावभासक ज्ञानको ही प्रमितिकरण (प्रमाण) होनेका समर्थन किया है और सन्निकर्ष,इन्द्रिय तथा मात्र ज्ञानको प्रमिति करण (प्रमाण) माननेमें दोषोद्भावन भी किया है। वास्तवमें प्रमितिप्रमाणफल जब अज्ञाननिवृत्ति है तब उसका करण अज्ञानविरोधी स्व और परका अवभास करनेवाला ज्ञान ही होना चाहिए । समन्तभद्रके द्वारा प्रतिष्ठित इस प्रमाणलक्षण 'स्वपरावभासक' को आर्थिकरूपसे अपनाते हुए भी शाब्दिकरूपसे अकलङ्कदेवने अपना. आत्मार्थग्राहक व्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाणलक्षण निर्मित किया है । तात्पर्य यह कि समन्तभद्र के 'स्व' पदकी जगह 'आत्मा' और 'पर' पदके स्थान में 'अर्थ' पद एवं 'अवभासक' पदकी जगह 'व्यवसायात्मक' पदको निविष्ट किया है। तथा 'अर्थ' के विशेषणरूपसे कहीं "अनधिगत' कहीं अनिश्चित और कहीं 'अनिर्णीत"" पदको दिया है । कहीं ज्ञान के विशेषणरूप से
१ देखो, सर्वार्थसि० १-१०। २ "व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् ।" - लघीय० का०६० ३ "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानं अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।"
–अष्टश० का० ३६ । ४ 'लिंगलिङ्गसम्बन्धज्ञानं प्रमाणं अनिश्चितनिश्चयात् ।'अष्टश० १०१
५ “प्रकृतस्यापि न वै प्रामाण्यं प्रतिषेध्यं-अनिर्णीतनिर्णायकत्वात् ।" अष्टश० का० १०१।