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न्याय-दीपिका
तो उन्हें अप्रमाण (प्रमाण नहीं) कहना अयुक्त नहीं है । न्यायदीपिकाकारने भी प्रथम घटादिज्ञानके अलावा उत्तरवर्ती अवशिष्ट घटादिज्ञानोको अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमितिको उत्पन्न न करनेके कारण अप्रमाण ही स्पष्टतया प्रतिपादन किया है और इस तरह उन्होंने अकलङ्कमार्गका ही समर्थन किया है। .
६. प्रामाण्यविचार
ऐसा कोईभी तर्क ग्रन्थ न होगा जिसमें प्रमाणके प्रामाण्याप्रामाण्यका विचार प्रस्फुटित न हुआ हो। ऐसा मालूम होता है कि प्रारम्भमें प्रामाण्यका विचार वेदोंकी प्रामाणता स्थापित करनेके लिए हुआ था। जब उसका तर्कके क्षेत्रमें प्रवेशमें हुआ तब प्रत्यक्षादि ज्ञानोंकी प्रामाणता और अप्रमाणताका विचार होने लगा। प्रत्येक दार्शनिकोंको अपने तर्क ग्रन्थमें प्रामाण्य और अप्रमाण्य तथा उसके स्वतः और परतः होनेका कथन करना अनिवार्य सा हो गया और यही कारण है कि प्रायः छोटेसे छोटे तर्कग्रन्थमें भी वह चर्चा आज देखने को मिलती है ।
१ "प्रत्याक्षादिषु दृष्टार्थेषु प्रमाणेषु प्रामाण्यनिश्चयमन्तरेणैव व्यवहारसिद्धेस्तत्र किं स्वतः प्रामाण्यमुत परत इति विचारेण न नः प्रयोजनम्, अनिर्णय एव तत्र श्रेयान्, अदृष्टे तु विषये वैदिकेष्वगणितद्रविणवितरणादिक्लेशसाध्येषु कर्मसु तत्प्रामाण्यावधारणमन्तरेण प्रेक्षावतां प्रवर्तनमनुचितमिति तस्य प्रामाण्यनिश्चयोऽवश्यकर्त्तव्यः, तत्र परत एव वेदस्य प्रामाण्यमिति वक्ष्यामः ।'–न्यायमं० पृ० १५५ । २ “सर्वविज्ञानविषयमिदं तावत्प्रतीक्ष्यताम् । प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः किं परतोऽथवा ॥"-मी० श्लो० चो० श्लो० ३३ । “प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा सर्वविज्ञानगोचरम् । स्वतो वा परतो वेति प्रथमं प्रविविच्यताम् ।"न्यायमं० पृ० १४६ ।