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नेमिनाथमहाकाव्य ]
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वह अलसाई आँखो को मू दे पड़ा रहता है, किन्तु बार-बार करवटें बदलकर पांव की वेडी से शब्द करता है जिससे उसके जागने की सूचना गजपालो को मिल जाती है। निम्नोक्त स्वभावोक्ति मे यह गज-प्रकृति चित्रित है।
निद्रासुख समनुभूय चिराय रात्रावुभूतशृङ्खलारवं परिवर्त्य पाश्वम् । प्राप्य प्रवोधमपि देव । गजेन्द्र एष नोन्मीलयत्यलसनेत्रयुग मदान्धः ॥ २०५४
हासकालीन महाकाव्य की प्रवृत्ति के अनुसार कीतिराज ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का पल्लवन भी किया है । उद्दीपन रूप मे प्रकृति मानव की भावनाओ एवं मनोरोगो को झकझोर कर उसे अधीर बना देती है। प्रस्तुत पक्तियो मे स्मरपटहसदृश घनगर्जना विलामीजनो की कामाग्नि को प्रज्वलित कर रही है जिससे वे, रणशूर, कामरण मे पराजित होकर, अपनी प्राणवल्लभाओ की मनुहार करने को विवश हो जाते हैं। . स्मरपते. पटहानिव वारिदान निनदतोऽथ निशम्य विलासिन । समदना न्यपतनवफ़ामिनीचरणयो रणयोगविदोऽपि हि ॥ ८॥३७
उद्दीपन पक्ष के इमः वर्णन मे प्रकृति पृष्ठभूमि में चली गयी है और प्रेमी युगलो का भोग-विलास प्रमुख हो उठा है, किन्तु इसकी गणना उद्दीपन के अन्तर्गत ही की जायेगी।
प्रियकर कठिनस्तनकुम्भयो प्रियकर सरसातवपल्लवै.।',
प्रियतमा समबीजयदाकुला - नवरतां वरतान्तलतागृहे ॥ ८१२३ ... नेमिनाथमहाकाव्य में प्रकृति का मानवीकरण भी हुआ है। प्रकृति पर मानवीय भावनामो तथा कार्यकलापो का आरोप करने से उसकी जडता समाप्त हो जाती है, उसमे प्राणो का म्पन्दन हो जाता और वह मानव की भांति आचरण करने लगती है। प्रात.काल, सूर्य के उदित होते ही, कमलिनी विकसित हो जाती है और भौंरे उसका रसपान करने लगते हैं। कवि ने