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नेमिनाथमहाकाव्य ]
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यह पद्य और भी चमत्कारजनक है । इममे केवल दो अक्षरो, ल और क, का प्रयोग किया गया है ।
लुलल्लीलाकलाटेलिकीला केलिफलाफुलम् ।
लोकालोकाकलकाल कोकिलकुलालका ॥ १२॥३६
प्रस्तुत पद्य की रचना अर्ध-प्रतिलोमविधि से हुई है। अत , इसके पूर्वार्ध तथा उत्तरार्घ को, प्रारम्भ तथा अन्त से एक समान पढा जा सकता है ।
तुद मे ततदम्भत्व त्व भदन्ततमेद त ।
रक्ष तात | विज्ञामीश ! शमीशावितताक्षर ॥ १२॥३८ इन दो पद्यो की पदावली मे पूर्ण साम्य है, किन्तु पदयोजना तथा विग्रह के वैभिन्न्य के आधार पर इनसे दो स्वतन्त्र अर्थ निकलते है । माहित्यशास्त्र की शब्दावली मे इसे महायमक कहा जायेगा।
महामद भवारागहार विग्रहहारिणम् ! प्रमोदजाततारेन श्रेयस्कर महातकम् ।। महाम दम्मवारामहरि विग्रहहारिणम् ।
प्रमोदजाततारेन श्रयस्कर महाहपम् ॥ १२॥४१-४२ इस कोटि के पद्य कवि के पाण्डित्य, रचनाकौशल तथा भापाधिकार को मूचित अवश्य करते हैं, किन्तु इनमे रसचर्वणा मे अवाछनीय वाधा आती है। टीका के विना इनका वास्तविक अर्थ समझना प्राय असम्भव है। सतोष यह है कि माघ, वस्तुपाल आदि की भांति इन प्रहेलिकामो का पूरे सर्ग मे मन्निवेश न करके कीतिराज ने अपने पाठको को वौद्धिक व्यायाम से वचा लिया है। अलकारविधान
प्रकृति-चित्रण आदि के समान अलकारो के प्रयोग मे भी कीतिराज ने सुरुचि तथा सूझ-बूझ का परिचय दिया है । मलकार भावाभिव्यक्ति मे कितने सहायक हो सकते हैं, नेमिनाथमहाकाव्य इसका ज्वलन्त उदाहरण है।