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नेमिनाथ महाकाव्यम् ]
अष्टम सर्ग
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विलासिनियो ने मोतियो की उज्ज्वल माला को छोडकर तेज माग
पर शत्रु का भी आश्रय लेना
का सेवन किया । बुद्धिमान् को समय चाहिये ॥४६॥
तदनन्तर गुणो में अशीतल ( अर्थात् गर्म प्रकृति वाली ) शिशिर ऋतु आयी, जिसमें विरहिणियो के मन रूपी बनो मे काम की ज्वाला भडक उठती है और हिमपात से कमलो के वन जल जाते हैं ||५०||
वसन्त मे जो भरे खिले स्वर्णकमलो के वन में स्वेच्छा से मकरन्द का पान करते थे, वे भी मात्र मे बबूलो पर मडराते हैं । विधाता की गति विचित्र है ||५१||
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उम ऋतु मे यद्यपि युवतियो ने चन्दनादि के लेप, कमलशय्या, मालादि को छोड दिया था तथापि उन्होने केवल शीत के बल से योगियों के भी मनो को वशीभूत कर लिया ||५२ ||
केतकी, चम्पक, कुन्द तथा कमलो के पाले से मर जाने पर भौंरा शिरीप-वन मे घूमने लगा । जग मे सभी ऊपर उठे हुए व्यक्ति का महारा लेते हैं ||५३||
प्रभु ने ऐसी मनोरम ऋतुओं मे भी कभी विषयो की इच्छा नही की । वन मे रहता हुआ भी मृगराज सिंह क्या कभी मधुर फल खाता है ? ॥१५४॥
वीर काम ने जगत्पूज्य प्रभु पर जो जो अचूक शस्त्र चलाया, वह वह इस प्रकार निस्तेज (निष्फल) हो गया जैसे क्षीर सागर मे इन्द्र का वज्र ॥५५॥
तब एक दिन प्रभु खेलते हुए शस्त्रशाला में पहुंचे। वहीं उन्होंने नारायण के पाञ्चजन्य शख को देखकर उसे अपने रक्ताभ हाथ मे ऐसे उठा लिया जैसे उदयाचल अपनी चोटी पर चन्द्रविम्व को धारण करता है ॥५६॥
तीनो लोको के स्वामी के कर-कमल पर रखा वर्फ के
अधिक उज्ज्वल वह शख, प्रफुल्ल कमल पर बैठे हंस शावक की चुरा रहा था ॥५७॥
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गोले से भी शोभा को