Book Title: Neminath Mahakavyam
Author(s): Kirtiratnasuri, Satyavrat
Publisher: Agarchand Nahta

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Page 219
________________ नेमिनाथमहाकाध्यम् ] एकादश सर्गः [ १४५ जिसके जीवित रहने के कारण शत्रु मोह का कुल, यद्यपि तुमने उसे ध्वस्त कर दिया है, पुन उत्पन्न हो जाता है, तीनो लोको का अपकार करने चाले उमे तुम लोभ नामक योद्धा जानो ॥६॥ प्रतिपक्षियो के बीच जो कुकथा नाम की एक चतुमुखी वीर योद्धी है, इसने सद्वोध, सदागम आदि तुम्हारे मैनिको को बहुत पीडित किया है ॥६६॥ किन्तु हे स्वामी ! आज विपक्षी राजा का भाग्य प्रतिकूल है। अतः विजय तुम्हारे हाथ मे ही है । इसमे सन्देह नहीं ॥६७॥ जब मन्त्री सुबोध यह कह रहा था, तब (महसा) यह कोलाहल उठा। (सुनाईपड़ा) हे योद्धाओ । शीघ्र तैयार हो जाओ, शत्रु की सेना आगयी है ॥६५ तव सयम के उद्यमी सैनिको ने प्रसन्न होकर कवच पहना । मन भावी इष्ट और अनिष्ट को पहले कब जानता है ? ॥६६॥ ____तव शत्रु सेना को सामने देखकर राजा मोह के यह कहने पर कि अप मेरी विजय होगी या नही, मन नामक ज्योतिपी ने कहा ।।७०॥ मजी । भाग्य की गति रहस्यपूर्ण है । ब्रह्मा (भी) उसे ठीक-ठीक नहीं जानता । शकुन शुम नही है । अत तुम्हें विजय मिलनी कठिन है ॥७१॥ मोहराज ने मुस्करा कर कहा-है मूढ नीच ज्योतिषी । तूने (ज्योतिष लगाने मे) गलती की है। यदि मेरु भी समुद्र को पार कर जाए तो भी मेरी पराजय नही हो सकती (अर्थात् मेरु भले ही सागर के पार चला जाए किन्तु मैं कदापि पराजित नही हो सकता) |७२।। तब नद्ध होकर मोहराज, महकार के कारण शत्रुओ को तिनके के वरावर भी न समझता हुआ, राग आदि सेनानायको के साथ तेजी से युद्ध के लिये उठा ॥७३॥ उत्पात रूपी हाथियो फो मागे किया गया, मद-हास्य भादि षोडे

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