Book Title: Neminath Mahakavyam
Author(s): Kirtiratnasuri, Satyavrat
Publisher: Agarchand Nahta

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Page 223
________________ नेमिनाथमहाकाव्यम् । द्वादश सग [ १४६ हे विशालनयनी | अपने फल के भार से झुके हुए पके धानो से युक्त वन को देखो, जिमकी किसान स्थान-स्थान पर तोते, मैना, कव्वे, कोयलो आदि पक्षियो से रखवाली कर रहे हैं |८|| हे कमलाक्षी । मेरा अनुमान है कि तालाब मे सूर्य के प्रकाश से खिला हुआ यह कमल, जिसकी पखुडियां हवा मे हिल रही हैं, तुम्हारे मुख से डरा हुआ-सा काप रहा है ॥६॥ प्रिये ! गुड और खाण्ड को पैदा करने वाले गन्ने का रस यद्यपि मधुर है तथापि यह तुम्हारे अधर से घटिया है क्योकि अधिक सजावट से वस्तु का रस (सौन्दर्य) समाप्त हो जाता है ॥१०॥ हे मृगनयनी । मधुर गीतो की ध्वनि के रस का आम्वादन करके ये हरिण, मानो पी गयी वायु से ठेले जाते हुए, हरिणियो के साथ वन मे लम्बी-लम्बी चौंकडियां भर रहे हैं ॥११॥ प्रिये ! मयमी जिन ने भोजराज की पतिव्रता पुत्री (राजीमती), अपने सम्वन्धियो तथा राज्य को भी तिनके की तरह छोडकर जहाँ तप करते हुए विहार किया, यह वह उज्जयन्त पर्वत है ॥१२॥ हे मादक आंखो वाली । देखो, पर्वत के वन मे यह आम है, यह खदिर, यह मफेदा, ये एक-साथ उगे हुए टेसू और मौलसरी हैं, ये कुटज के दो पेड हैं, यह चीड है और यह चम्पक ॥१३॥ प्रिये । सामने तुम जगत्प्रभु का चमकीला तथा निर्मल सभागृह देख रही हो। अपनी अतिशय भक्ति प्रकट करते हुए देवो और असुरो ने प्रसन्न हो कर इसे यहां बनाया है ॥१४॥ प्रिये ! ये देवागनाएं, जिन्होंने अपने शरीर की कान्ति से समस्त दिशाओ को प्रकाशित कर दिया है, जो पवित्र अलौकिक भूषण पहन हुए हैं तथा जिनके पैरो मे नूपुर बघे हैं, अपने प्रियतमो के साथ प्रभु की सभा में मा रही हैं ॥१५॥

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