Book Title: Neminath Mahakavyam
Author(s): Kirtiratnasuri, Satyavrat
Publisher: Agarchand Nahta

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Page 215
________________ नेमिनाथमहाकाव्यम् ] एकादश सर्ग [ १४१ स्वामी । सक्षेप मे, शत्रुमो ने परम ध्यान के बल से रति और काम की सेना को इस प्रकार क्रूरता से मथ डाला है जैसे देवो ने मेरु पर्वत से क्षीरसागर का मन्थन किया था ॥२७।। महाराज | अब अपने शत्रु के विनाश के लिये शीव्र प्रयत्न कीजिए। ___ मजबूती से जड़जमे शत्रुओ और वृक्षो को बाद मे उखाडना बहुत मुश्किल है ॥२८ जिसने वढते हुए शत्रुओ और रोगो को पूर्णत नष्ट नहीं किया, उसके ऊपर उनसे, कुछ ही दिनो मे, निस्सन्देह घोर विपत्ति भाती है ।।२६।। ससार में जो राना शत्रुओ को न मारकर गर्व के कारण निश्चिन्त रहता है, वह मूर्ख आग मे हवि डाल कर उसके पास सोता है ॥३०॥ विषयो के द्वारा यह निवेदन करने पर मोहराज ने मुस्करा कर कहा-ये हरिण (चरित्र राज के सैनिक तव तक आराम से घूमे जब तक यह शेर (मोह) सो रहा है ॥३१॥ मुझे नेमिनाथ रूपी नगर पर शामन करते हुए अनन्त समय वीत गया है। मेरे जीवित रहते पृथ्वी का कौन दूसरा वीर उस पर कब्जा कर सकता है ॥३२॥ तब मोहराज ने अपने तथा शत्रुओ के वल को जानने की इच्छा से सयमराज के पास कुमत नामक चतुर दूत भेजा ॥३३॥ उस वाक्पटु दूत ने चरित्रराज की सभा मे प्रविष्ट होकर, शत्रुओ के हृदय-सागर मे अभूतपूर्व हलचल पैदा करते हुए कहा ॥३४॥ संयमराज | सम्राट् मोह मेरे द्वारा आपको यह सन्देश देते हैं कि नेमिनाथ के मन-रूपी मेरे नगर को छोड़ कर किसी दूसरी जगह चले जाओ! तुम्हारा कल्याण हो ॥३५॥ सयमराज । नेमि के हृदय को छोडते हुए तुम्हे तनिक भी लज्जा नही

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