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नवम सर्ग
यह जानकर कि नेमिप्रभु भोग भोगने योग्य हो गये हैं, माता पिता ने पुत्र-प्रेम के वशीभूत होकर एक दिन श्रीकृष्ण को यह कहा ॥१॥ - पुत्र । ऐसा प्रयत्न करो कि यह नेमिकुमार वधू का हाथ स्वीकार कर ले, जो भोग-सम्पदाओ का चिह्न है ॥२॥
श्रीकृष्ण ने यह वान अपनी सब पलियो को कही ! ऐसे कार्यों में बहुधा स्त्रियां ही निपुण होती हैं ।।३ ।
तव एक दिन श्रीकृष्ण की सत्यभामा आदि पत्लियो ने नेमि को चतुर शब्दो में स्नेहपूर्वक यह कहा ।।४।।
नेमिनाथ | यौवन की यह मनोहर श्री प्रतिक्षण इस प्रकार क्षीण हो रही है जमे रात्रि के अन्तिम भाग में चन्द्रमा की किरणो की राशि ॥५॥
इसलिये तुम भोगो को न भोग कर इस पवित्र यौवन को जगल मे गडे धन की तरह क्यो ऐसे व्यर्थ गवा रहे हो ॥६॥
नेमि । तुम्हारा रूप सबको मात करने वाला (सर्वोत्तम) है, सौन्दर्य जगत् को प्रिय है, चातुरी अवर्णनीय है, मलोनापन अनुपम है । इन्द्र भी तुम्हारी प्रभुता की कामना करते हैं । तुम्हारी महिमा देवताओ की भी पहुंच से परे है । हे कुमार ! अधिक क्या, जग को आनन्द देने वाले समूचे गुण तुम्हारे मे इस प्रकार विद्यमान हैं जैसे तारे आकाश मे ||७-६।।
परन्तु विभूति, सौन्दर्य, रूप आदि मनुष्यो के गुण पत्नी के विना ऐसे अच्छे नही लगते जैसे रात्रि के विना चांदनी ॥१०॥
इसलिये हे बुद्धिमान् देवर ! रति मे विघ्न डालने वाली लज्जा को छोड़ो और यौवन-वृक्ष का फल तुरन्त ग्रहण करो ॥११॥