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दशम सर्ग
तब सखी के मुख-म्पी चन्द्रमा से झरते इस ममाचार-रूपी अमृतरस का पान करती हुई भोजराज की चकोरनयनी पुत्री (राजीमती) को, चकोरी की भांति, तृप्ति नहीं मिली ॥१॥
उसने सखी से वार-बार पूछा कि क्या यह मजाक है अथवा तू सच वोल रही है ।' यदि तू मेरे सामने सच्ची बात नही कहती तो तुझे मातापिता की सौगन्ध ॥२॥
इघर मन्त्रियो ने समुन्द्रविजय, कृष्ण और बलराम को सूचित किया कि हे नरनायको । विवाह की समूची उत्तम सामग्री तैयार है ॥३॥
गदी धूल को साफ करके नगर की सडको पर सुगन्धित जल का छिडकाव कर दिया है । उनके ऊपर रग-विरगे चम्पक, जपा, चमेली आदि के फूल विखेर दिये हैं | आकाश काफूर, अगुरु और धूप के धुए से भर गया है । वन्दियो को छोड दिया गया है। वे नेमिप्रभु को आशीर्वाद दे रहे हैं ॥४॥
और मणिखचित सोने के मनोहर तोरण खडे कर दिये हैं, कदली. स्तम्भो के कारण सुन्दर अत्युच्च मण्डप बना दिये गये हैं और उत्तम मोतियो, स्वर्णकन्दलो तथा हिलती मणियो से उज्ज्वल और विविध चित्रो से युक्त रमणीय चॅदोए लगा दिये हैं ॥५॥
तब निकटवर्ती उद्यान में ऊचे वृक्षो की ठण्डी छाया में बैठे हुए यात्री द्वारिका को देखकर मन मे यह सोचने लगे कि क्या यह स्वर्गपुरी अथवा नागपुरी (पाताल या सोने की ल का अथवा अलका नगरी पृथ्वी पर आ गयी है ॥६॥