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दसम सर्ग
[ नेमिनाथमहाकाव्यम्
उसी समय शरीर की देदीप्यमान कान्ति से समूची दिशाओ को प्रकाशित करते हुए लोकान्तिक देवो ने प्रभु से स्तुतिपूर्वक यह निवेदन किया ॥३८॥
__ सुरो और अमुगे को झुकाने वाले आपको नमस्कार, काम को जीतने वाले यापको नमस्कार, विकसित मुखकमल वाले आपको नमस्कार समूचे जगत् के हितपी आपको नमस्कार ॥३६॥
हे पूज्य | आपको यह आकृति ही स्पष्ट कह रही है कि आप समस्त दोपो से मुक्त हैं। सज्जन की बाह्य चेष्टा उसके स्वरूप को पहले ही व्यक्त कर देती है ॥४०॥
हे जिनेन्द्र ! दीपक की तरह एक देश को प्रकाशित करने मे तत्पर तीर्थकर घर-घर मे हजारो हैं किन्तु सूर्य के ममान ससार को घोतित करने वाले केवल एक आप ही हैं ॥४१॥
- हे परमार्थवैद्य | आप कृपा करके तुरन्त निर्मल धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करें, जिसे पाकर भव्य जन अगाध भवसागर को जल्दी पार कर जाते हैं ।।४२।।
तब प्रभु ने पृथ्वी पर इच्छानुसार वार्षिक दान प्रारम्भ किया जैसे पुष्कर और आवर्तक वंश मे उत्पन्न मेत्र अपरिमित जल बरसाता है ।।४३।।
नसश्चात् नेमिनाथ भोजराज की स्नेहमयी एव वुद्धिमती पुत्री ( राजीमती). साम्राज्यलक्ष्मी तथा आत्मीय जनो को छोड कर और पूज्य माता-पिता से अनुमति लेकर दीक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गये ॥४४।।
दीक्षा का समय जानकर इन्द्र ने, शची के पुष्ट स्तनो रूपी कमलकोशो के भ्रमरअपनेहाथ मे जिसने वज़ उठाया हुआ था, जिसके गाल चमकीले कुण्डलो की प्रभा मे यतीव शोभित थे, तथा जो हिलती हुई पताकाओ से सूचित घुघल्मो के शब्द से गु जित विमान में सवार था, देवताओ के साथ आकर नेमिनाथ को नमस्कार किया ।।४५-४६।।