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नेमिनाथमहाकाव्यम् ]
दसग मर्ग
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देवताओ और मनुष्यो ने पहले जिनेन्द्र को शुद्ध जल से स्नान कराके दिव्य लेपो का लेप किया, फिर उन्हे प्रमुख वस्त्रो तथा आभूषणो से विभूपित किया ॥४७॥
तब वढिया पन्ने के समान कान्ति वाले नेमिप्रभु, जिनका कण्ठ उज्ज्वल रत्नो की माला तया मोतियो से अल कृन था, इन्द्रधनुष से युक्त मेघ की तरह शोभित हुए ॥४८॥
इसके बाद देवो और असुरो के स्वामियो तथा प्रमुख यादवो ने जब उस महान् उत्सव को सम्पन्न कर दिया तो जिनेश्वर ने, राजाओ, नागेन्द्रो, सुरेन्द्रो तथा चन्द्रो द्वारा उठायी गयी, मणियो तथा मोतियो की मालाओ से मनोहर, स्वर्णनिर्मित विमान-तुल्य पवित्र पालकी मे बैठ कर द्वारिका के राजपथ पर प्रस्थान किया ॥४६-५०॥
तब व्रत ग्रहण करने के इच्छुक जगदीश्वर उर्जयन्त पर्वत के आम्रवन मे पहुंचे । हजारो शब्दो मे उनका अभिनन्दन किया जा रहा था, हजारो नेत्र , उन्हें देख रहे थे, हजारो सिर उनकी वन्दना कर रहे थे, हजारो हृदय उन्हे अपने मे धारण कर रहे थे, नर, देव तया दैत्य उनकी स्तुति कर रहे थे और देवागनाए मगलगान गा रही थी ॥५१-५२॥
वहां अशोक वृक्ष के नीचे पालकी रखवा कर नेमिनाथ उससे उतर गये । तब उस वीतराग ने समस्त वस्त्रो, भूषणो आदि को छोडकर हजारो कुलीन पुरुषो के साथ दीक्षा ग्रहण की, जो सिद्धि रूपी स्त्री का आलिंगन प्रास कराने वाली चतुर दूती है ॥५३॥