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वष्टम सर्ग
[ नेमिनाथमहाकाव्यम्
सुन्दर सरोवरो मे विले कमलो की पक्तियाँ, जिन पर भौंरे बैठे थे, ऐसे शोभित हुई मानो जल देवता ने शरत् के नवीन सौन्दर्य को देखने के लिये अपनी आंखें सैकडो प्रकार से फैलायी हो ॥४१॥
जल स्वच्छ हो गया, चावल पक गये, हस शब्द करने लगे, कमल खिल उठे। मानो शरद ऋतु के गुण मिलकर आनन्दपूर्वक मभी जलाशों मे उतर गये ॥४२॥
पृथ्वी पर कोई शरद् रूपी वृद्धा विजयी है ( उत्कर्ष सहित विद्यमान है ), उममे चचल वादल जल से रहित हैं, वह खिले हुए काश-पुष्पो रूपी चमकीले श्वेत केशो से अङ्कित है और उसके पके चावलो के कण रुपी दात गिर गये हैं। वृद्धा के स्तन दूध से खाली होते हैं, उसके सफेद बाल काश के फूलो के समान होते हैं और चावलो जैसे उमके दांत गिर जाते हैं) ॥४३॥
शरत्काल में मदमस्त, साण्ड धरती खोदकर अपने सिर पर धूल फैकते हैं। क्या मदान्ध वुद्धि वाले कभी उचित और अनुचित का विचार करना जानते हैं ? ॥४४॥
वर्षा के बीतने पर (अर्थात शरद् मे) नदियो और मोरो ने क्रमश. उद्धतता और अहकार छोड दिया । बल और पुष्टि देने वाले प्रिय जन के चले जाने पर किसके दर्प रूपी धन का नाश नही होता ? ॥४५॥
उसमे, निरन्तर जल वरसाने के कारण श्वेत बादलो . से आच्छादित आकाश को, छरहरे शरीर पर चन्दन का लेप लगी नारी के समान देसकर 'कौन प्रसन्न नही हुआ ? ||४६|
- इसके बाद जैसे तेज वायु पुष्पवाटिकाओ को हिलाती है, उसी प्रकार दरिद्रो के परिवारो को कपाती हुई हेमन्त ऋतु आई, जिसमे सूर्यमण्डल आग की चिंगारी मे बदल गया था (अर्थात् 'उसका तेज मन्द पड गया था) ॥४७॥
उसमें दिन, दुष्टो की प्रोति की तरह धीरे-धीरे लगातार छोटे होते गये और सर्दी सज्जनो के प्रेम की तरह प्रतिदिन बढने लगी ॥४८॥