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नेमिनाथमहाकाव्यम् ] द्वितीय सर्ग
[ ८१ तम गजगामिनी को प्रसन्न देख कर राजा ने ये सारपूर्ण शब्द कहे हे कमलनय नि । आओ, यहाँ वैठो, कहो, तुम्हारे आने का क्या प्रयोजन है ॥१७॥ - शरीर की कान्ति से दिशाओ को प्रकाशित करती हुई, चिकने केशो
पी अजन की वेणी वाली तथा स्नेह से परिपूर्ण वह, राजा के सामने बैठी हुई, उज्जवल दीपिका के समान शोभित हुई । ( दीपिका भी अपनी शिखा से दिशाओ को प्रकाशित करती है, चिकने केशो के समान अ जन उसकी वेणी है और वह तैल से भरी रहती है) ॥१८॥
उसने कहा 'हे स्वामी । सुखदायक शय्या पर लेटे हुए मैंने अव चौदह . श्रेष्ठ स्वप्न देखे हैं। मैं आपके मुख रूपी चन्द्रमा से उनके फल रूपी अमृत का पान करना चाहती हूँ। १६॥
तव बुद्धि का भण्डार राजा वह प्रिया द्वारा कहे गये स्वप्नो को सुनकर उन्हें विचार-मार्ग पर ले गया जैसे उत्तम गुरु शिप्य-मण्डली द्वारा किये गए प्रश्नो को सुनकर उन पर विचार-विमर्श करता है ॥२०॥
तत्पश्चात् धीरवुद्धि राजा ने स्वप्नो के बहुमूल्य फल पर अच्छी तरह विचार करके, अपने मुख-कमल की सुगन्व से प्रिया के मुख-कमल को सुरभित करते हुए, स्पष्ट अर्थ वाले ये शब्द कहे ॥२१॥
प्रिये । चौदह स्वप्न देखने के कारण तुम चौदह लोको के स्वामी, प्राणियो के चौदह गणो को अभय देने वाले तथा चारो दिशाओ मे पूजनीय पुत्र को जन्म दोगी ॥२॥
शैशव को लांघकर अपने भुजदण्ड रूपी सूण्ड से दुष्ट राजाओं के सिंहासनो को उखाडता हुमा, उद्दीस गर्व रूपी सेना के कारण दुर्घर्ष वह, हाथी की तरह, शत्रुओ को जीतने वाला बनेगा। (हाथी वचपन को लाकर भुजदण्ड के समान सूण्ड से दृढ वृक्षो को उखाडता है और मदजल रूपी सेना के कारण दुर्घर्प होकर गजराज बन जाता है) ॥२३॥
वह तुम्हारा कल्याणकारी श्रेष्ठ पुद, अकेला ही, समूचे वीर यादवो को इस प्रकार अलकृत करेगा जैसे मकेला पवित्र यौवन मनुष्य के शरीरके सारे अंगो कोसुशोभित कर देता है ।।२४।।