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द्वितीय सर्ग [ नेमिनाथमहाकाव्यम् कुमुदो के पराग के समान पीले, विभिन्न रगो मे विभक्त, घु घरूओ के मधुर शब्द से गु जित इन्द्रध्वज को (देखा), जो मन्द वायु से हिलते पत्तो से मानो जिनेन्द्र के अवतरण के हर्प के कारण कपर नाच रहा था ॥८॥
फूलो से युक्त हरे पत्तो से शोभित कण्ठ वाले- जल से, परिपूर्ण कलश को (देखा), जो चूडामणियो से अलकृत नागो के फणो से व्यास एक छोटे निर्मल अमृतकुण्ड के समान था ॥६॥
खिले हुए कमलो से सुशोमित तथा नतीव स्वच्छ जल से भरे तालाव . को (देखा) जो अमीम करुणा से परिपूर्ण मुनिराज के निर्मल चित्त के समान था। ॥१०॥
'हे माता } जैसे जल के कारण मेरी थाह नही पाई जा सकती (अर्थात मैं अगाध हूँ) उसी प्रकार गुणो से यह तुम्हारा शिशु होगा, मानो यह सूचित करने के लिये चचलतरगो से व्याप्त, प्रकट हुए ममुद्र को (देखा। ।।११।।
मानो तीर्थंकर नेमिप्रभु को पृथ्वी पर लाने के लिए आए हुए अपराजित नामक देदीप्यमान विमान को (देखा), जिसका वर्णन करना मनुष्य की वाणी से परे था तथा जिसमे घण्टियो का मधुर शब्द हो रहा था ॥१२॥
अतीव चमकीले रग-विरगे रलो की राशि को (देखा),जो मन में यह तर्क पैदा कर रही थी कि क्या यह तारो का समूह है अथवा तीव्र प्रकाश वाले दीपको की पंक्ति ? ॥१३॥
चमकते अंगारो के कणो से युक्त तथा धूसर धुएं से रहित तेज गर्म आग को (देखा), जो अतीव कान्तिमयी लाल मणियो की राशि के समान थी ॥१४॥
दशाहराज (समुद्रविजय) की पटरानी ने इन श्रेष्ठ स्वप्नो को देखकर मोह की मुद्रा निंद्रा को छोड़ दिया (अर्थात् वह जाग गई) जैसे कमलिनी सूर्य की किरणो का स्पर्श पाकर खिल जाती है ॥१॥
तब शिवादेवी शय्या से उठकर अपने पति के भवन में गयी जैसे . प्रफुल्ल स्वर्णकमल पर रहने वाली लक्ष्मी विष्णु के वक्ष पर जाती है ॥१६॥