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तृतीय सर्ग नेमिनाथमहाकाव्यम् तथा मुक्तामणियो से दीपित है, वह हिम के वस्त्र से सुशोभित है तथा अपनी दुर्गम घाटियो के कारण अगम्य है ) ॥८॥
प्रमुख मन्त्रियो से घिरा हुआ वह ऐसे शोभित हुआ जैसे अपने झुण्ड के हाथियो से यूय का स्वामी ( गजराज ), तारो के समूह से शरत् का चन्द्रमा और घने आम्र वृक्षो से कल्पतरु ॥६॥
उस अग्रणी राजा ने जानकार लोगो द्वारा कही जाती हुई, अनिवचनीय आनन्द से परिपूर्ण कथा रूपी अमृत का अपने कर्णपुटो से तत्परतापूर्वक पान किया ॥१०॥
इसके बाद राजा ने अपने सेवको को स्वप्नो पर विचार करने मे कुशल व्यक्तियो को बुलाने के लिए आदेश दिया। निमन्त्रण पाकर वे भी राजा को आशीर्वाद देते हुए वहाँ उपस्थित हुए ॥११॥
प्रिये । देवता कौन हैं ? वृपभ । अरी, क्या वैल ? नही, वृपभध्वज । क्या शकर ? नही, चक्रवर्ती जिन । इस प्रकार पति-पत्नी द्वारा हास्यपूर्वक कहे गए जिनेन्द्र आपको प्रसन्न करें ॥१२॥
वह युगादि देव ऋपभ आपकी लक्ष्मी की रक्षा करे, जिसने पहले साम्राज्यलक्ष्मी को भोगा, तत्पश्चात् चारित्रलक्ष्मी को और फिर केवल-ज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया ॥१३॥
अन्धकार (अज्ञान) की राशि को नष्ट करने वाली तथा चारो ओर अर्थतत्त्व को प्रकाशित करने वाली शास्त्ररूपी मणि को, रात्रि के समय वणिक् की अट्टालिका पर । रखे) दीपक के समान, हृदय-कमल मे धारण करते हुए, स्नात, प्रशमनीय, शास्त्रज्ञ, कृतज्ञ तथा श्वेत एव निर्मल वस्त्र पहने हुए स्वप्नज्ञ लोग, राजा की आज्ञा से, सामने रखे उत्तम आसनो पर वैठ गये ||१४-१५॥
राजा ने नाना प्रकार के पवित्र फलो, मालाओ तथा वस्त्रो से उनकी पूजा की (उन्हे सम्मानित किया) क्योकि ज्योतिषी फल देखकर ही प्रश्न करने वाले को उसका फन वतलाते हैं ॥१६॥