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[ नेमिनाथमहाकाव्य
की तिराज की इस सफलता का रहस्य यह है कि उसने अलकारो का सनिवेश अपने ज्ञान-प्रदर्शन अथवा काव्य को अलकृत करने मात्र के लिये नही अपितु भावो को स्पष्टता एव सम्पन्नता प्रदान करने के लिये किया है । नेमिनाथमहाकाव्य के अलकारो का सौन्दर्य इसके अप्रस्तुतो पर आधारित है । उपयुक्त अप्रस्तुतो का चयन कवि की पैनी दृष्टि, अनुभव, मानव प्रकृति के ज्ञान, सवेदन - गीलता तथा सजगता पर निर्भर है । कीर्त्तिराज ने अप्रस्तुतो की खोज मे अपना जाल दूर-दूर तक फैका है और जीवन के विविध पक्षो से उपमान ग्रहण किये हैं । उसके अप्रस्तुत अधिकतर उपमा तथा उत्प्रेक्षा के रूप मे प्रकट हुए हैं। उनसे वर्णित भाव अथवा विपय किस प्रकार स्पष्ट तथा समृद्ध हुए है, इराके दिग्दर्शन के लिये कतिपय उदाहरण आवश्यक हैं ।
प्रभु के दर्शन मे इन्द्र का क्रोध ऐसे शान्त हो गया जैसे ज्वरपीडा और वर्षा मे दावाग्नि (५११४) । जहाँ ज्वराति देवराज के क्रोध की प्रचण्डता का वोध कराती है वहाँ अमृतपान उपमानो से उसके सहसा शान्त होने का भाव स्पष्ट हो गया है । जैसे काले बादलों से भरे
तथा वर्षा शिशु नेमि
शोभा देता था
।
के सावले शरीर पर अङ्गराग ऐसे आकाश में मान्व्य राग ( ६।१८ ) सुरो ओर असुरो के नेत्र अन्य विषयो को छोडकर जिनेन्द्र के रूप पर इस प्रकार पडे जैसे भरे कमलो पर गिरते हैं ( ६१२३ ) । नेमिप्रभु ने अपनी सुवा-शीतल वाणी से यादवो को इस प्रकार प्रवोन दिया जैसे चन्द्रमा कुमुदो को विकमित करता है को खिलते देखकर भली भाँति अनुमान किया जा कैसे बोध मिला होगा ! दो हिलनी चवरियो के युगल के मध्य स्थित कमल के समान शोभित था बहुत उपयुक्त है । नेमि को अचानक वधूगृह से लौटते देखकर यादव उनके पीछे ऐसे दौडे जैसे व्याव मे भीत हरिण यूथ के नेता के पीछे भागते हैं । अन्त हरिणी के उपमान में यादवो की चिन्ता, आकुलता आदि तुरन्त व्यक्त हो जाती हैं ।
( १०1३५ ) । कुमुदो सकता है कि यादवो को
वीच प्रभु का मुख हसो के
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१२/२१ ) । प्रस्तुत उपमा
अमृतपान से और दावाग्नि