Book Title: Neminath Mahakavyam
Author(s): Kirtiratnasuri, Satyavrat
Publisher: Agarchand Nahta
View full book text
________________
५८ ]
एकादश. सर्गः [ नेमिनाथमहाकाव्यम् इति ता घनशोकविह्वला विलपन्ती लुठितामिलातले । निजगाद सवाष्पगद्गद स्वजनोऽङ्क विनिवेश्य वत्सले ॥१२॥ राजिमति पुत्रि कोविदे भव धीरा विजहीहि शोचनम् । किं किं न भवेच्छरीरिणा प्रतिकूले हि विधी शुभेतरत् ।।१३।। कतरो विधिना न खण्डित कतरोऽभीष्टवियोगमाप न । सुखितो भुवनेऽत्र क सदा फलित कस्य समस्तमीहितम् ॥१४॥ रुदितेन तनूभृता किल स्वमनोऽभीष्टमवाप्यते यदि । बहुशो विरस विरटस्तदा रवणो नेव लभेत यातनाम् ॥१५॥ निपतन् सहसा महीतले ध्रियते मेरुमहीधर कदा । न पुनर्भविना शुभाशुभ. परिणाम. समुपात्तकर्मणाम् ।।१६।। परिवृत्य दिनक्षपे इव ध्रुवमेतोऽङ्गिनि सम्पदापदौ । तदल विवुधे गुचाधुना कुरु धर्म सकलार्थसाधनम् ।।१७।। नियत सकलार्थसिद्धय. सुकृतादेव भवन्ति देहिनाम् । नवपल्लवपुष्पसम्पदोऽम्वुदसेकादिव नीपभूरुहाम् ॥१८॥ इति सा स्वजनेन बोधिता विदुषी शोकमपास्य दूरत । समजायत धर्मतत्परा सुखबोध्यो हि विशारदो जन ।।१६।। अथ रागरुपाविवजित. शशिविम्बोपमसौम्यदर्शन । सुरशैलममानधीरिमा परमध्यानमना जिनोऽजनि ॥२०॥ करुणारसवीचिसागर परवस्तुग्रहणे पराड मुख । हितसत्यवचा सुशीलवान् मुनिपोऽभूत्समलोष्टकाचनः ।।२१।। परमोग्रतप करौजसा घनकमंद्रुचय समुत्खनन् । प्रभुमत्तमतगज सुखं विजहाराचलकाननादिषु ।।२२।। उपसर्ग-परीपह-द्विषोऽवगणय्यात्र जिनाधिनायक. । तप आरभतातिदु सह खलु शुद्धिर्न तपो विनात्मन ।।२३।।

Page Navigation
1 ... 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245