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[ नेमिनाथमहाकाव्य तेजो जपाकुसुमकान्ति कुमुद्वतीषु विद्योतते निपतित नवभानवीयम् । भर्तु कलाकुलगृहस्य वियोगदु निर्दारितादिव हृदो रुधिरप्रवाहः ।।
(ने. नि ३१३) मेरु की नदियां कहां से निकलती हैं ? कवि का विश्वास है कि निकटवर्ती सूर्य की गर्मी के कारण मेरु का शरीर पसीने से तर हो गया है। पसीने की वे धाराएं ही नदियो के रूप में परिणत होकर बह निकली हैं ।
अजस्रमासन्नसहस्रदीधितिप्रतापसपादितखेदजन्मभिः । विसारिभि स्वेदजलरिवोज्ज्वलविराजमानावयव नदीशते ।। (ने नि ५११७)
स्वर्ण-पर्वत पर एक ओर सफेद वादल सटे हुए हैं, दूमरी ओर काली घटाए । कवि को लगता है कि शकर तथा विष्णु ने एक-साथ ब्रह्मा को आलिंगन मे बांध लिया है।
पयोधररञ्चितमेकत सित सितेतर फाञ्चनकायमायत । पितामह घूजटिकैटभाहितप्रदत्तसश्लेपमिवैकहेलया ॥ (ने नि ५।१८)
सूर्य के अस्त होने पर तागें के प्रकट होने का रहस्य यह है कि मूर्य अस्ताचल की चोटी पर चढ कर जव पश्चिम-पयोधि मे छलाग लगाता है तो जलकण उछल कर तारो के रूप मे आकाश में फैल जाते हैं। अपरावनीघरसटात्पयोनिधी पतत सतो झगिति झम्पया रवे । व्यरुचन्समुच्छलदतुच्छपायसाभिव बिन्दवो गगनसोम्नि तारका, । (ने मि६।१३)
कीतिराज की कविता का मागोपाग मूल्याकन पहले किया जा चुका है । दोनो की तुलना करने पर ज्ञात होगा कि वाग्भट की प्रवृत्ति अलकरण की और अधिक है। कीतिराज के काव्य मे सहजता है, जो काव्य की विभूति है और कीतिराज की श्रेष्ठता की द्योतक भी। कवित्व-शक्ति की दृष्टि से । दोनो में शायद अधिक अन्तर नही । खेद यह है कि आधारभून हरिवशपुराण के प्रति बद्धता के कारण वाग्भट ने पुराण-वणित प्रसगो को अधिक महत्त्व ।। दिया है जिससे उसके काव्य में प्रचारात्मक स्वर अधिक मुखरित है।
सत्यव्रत