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[ नेमिनाथमहाकाव्य देव प्रिये । को वृपभोऽयि I कि गौ । नैव वृषाक । किम शफरो, न ! जिनो नु चक्रोति वधूवराभ्या यो वक्रमत स मुदे जिनेन्द्र ।।३।१२
___ इनके अतिरिक्त सन्देह, विरोधाभास, विपम, व्यतिरेक, विभावना, निदर्शना, सहोक्ति, विपम आदि अलङ्कार भी नेमिनायकाव्य के सौन्दर्य में वृद्धि करते है। छन्दयोजना
___ भावव्यजक छन्दो के प्रयोग मे कात्तिगज पूर्णत सिद्धहस्त हैं । उनके काव्य मे अनेक छन्दो की योजना की गयी है । प्रथम, सप्तम तथा नवम मर्ग मे अनुष्टुप् की प्रधानता है । प्रथम मर्ग के अन्तिम दो पद्य मालिनी तथा उपजाति मे हैं, मप्तम मर्ग के अन्त मे मालिनी का प्रयोग हुआ है और नवम सर्ग । का पैतालीमवां तथा अन्तिम पद्य-क्रमश उपगीति तथा नन्दिनी में निबद्ध हैं। ग्यारहवे सर्ग मे वैतालीय छन्द अपनाया गया है । सर्गान्त मे उपजाति और मन्दाक्रान्ता का उपयोग किया गया है । तृतीय सर्ग की रचना उपजाति में हुई है । अन्तिम दो पद्यो में मालिनी का प्रयोग हुआ है । शेष सात मर्गों में कवि ने नाना वृत्तो के प्रयोग से अपना छन्दज्ञान प्रदर्शित करने की चेष्टा की है। द्वितीय सर्ग-मे उपजाति (वशस्य + इन्द्रवशा), इन्द्रवशा, वशस्थ, इन्द्रवज्रा, उपजाति (इन्द्रवज्रा+उपेन्द्रवज्रा) वमन्ततिलका, द्रुतविलम्बित तथा शालिनी, इन आठ छन्दो को प्रयुक्त किया गया है। चतुर्थ सर्ग की रचना नौ छन्दो मे हुई है । इसमे अनुष्टुप् का प्राधान्य है । अन्य आठ छन्दो के नाम हैंद्र तविलम्वित, उपजाति (इन्द्रवजा+उपेन्द्रवज्रा), इन्द्रवज्रा, स्वागता, रथोद्घता, इन्द्रवशा, उपजाति (इन्द्रवशा+वशस्थ तथा शालिनी। पचम सर्ग मे सात छन्दो को अपनाया गया है-उपजाति (इन्द्रवज्रा+उपेन्द्रवज्रा), इन्द्रवत्रा, वशस्य, वसन्ततिलका, प्रमिताक्षरा, रथोद्घता तथा शार्दूलविक्रीडित | छठे सर्ग मे पाच छन्द दृष्टिगोचर होते है। इनमे उपजाति प्रमुख है। शेष चार छन्द है-उपेन्द्रवजा, इन्द्रवज्रा, शार्दूलविक्रीडित तथा मालिनी ।