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[ नेमिनाथमहाकाव्य
सुख उन्हे अभिभूत नही कर पाते । कृष्ण पत्नियां नाना प्रलोभन तथा युक्तियाँ देकर उन्हें विवाह करने को प्रेरित करती हैं, किन्तु वे हिमालय की भांति अंडिग तथा अडोल रहते हैं । उनका दृढ विश्वास है कि वैषयिक सुख परमार्थ के शत्रु हैं | उनसे आत्मा उमी प्रकार तृप्त नही होती जैसे जलराशि से सागर और काठ से अग्नि । उनके विचार मे कामातुर मृढ ही धर्मोपवि
^ को छोड कर नारी रूपी ओपव का सेवन करता है । वास्तविक मुख ब्रह्मलोक
विद्यमान है ।
हित धमीपत्र हित्वा मूढा फामज्वरादिता । मुखप्रियमपय्यन्तु सेवन्ते ललनौषधम् ||६|२४
माता-पिता के प्रेम ने उन्हें उस सुख की प्राप्ति के मार्ग से एक पन ही हटाया था कि उनकी वैराग्यशीलता तुरन्त फुफकार उठती हैं । वधूगृह मे भोजनार्थं वव्य पशुओ का था क्रन्दन सुनकर उनका निर्वेद प्रवल हो जाता है और वे विवाह को बीच मे ही छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं । उनकी साधना की परिणति शिवत्व प्राप्ति मे होती है । अदम्य काम शत्रु को पराजित करना उनकी धीरोदत्तता की प्रतिष्ठा है ।
समुद्र विजय
यदुपति समुद्रविजय कथानायक के पिता है । उनमे समूचे राजोचित गुण विद्यमान हैं । वे रूपवान् शक्तिशाली, ऐश्वर्यसम्पन्न तथा प्रखर मेघावी हैं । उनके गुण अलङ्करण मात्र नही हैं । वे व्यावहारिक जीवन मे उनका उपयोग करते हैं । (शक्तेरनुगुणा क्रिया ११३६) ।
समुद्रविजय तेजस्वी शासक हैं । उनके वन्दी के शब्दो मे अग्नि तथा सूर्य का तेज भले ही शान्त हो जाए, उनका पराक्रम अप्रतिहत है । विध्यायतेऽम्भसा वह्नि सूर्योऽब्देन विधीयते । न केनापि पर राजस्त्वत्तंज
परिहीयते ||७|२५