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[ नेमिनाथमहाकाव्य
यद्यपि समूचा काव्य प्रमाद गुण की माधुरी मे जोत-प्रोत है, किन्तु सातवे सगं मे प्रसाद का सर्वोत्तम रूप दीख पड़ता है । इसमें जिम महज, सरल तथा सुबोध भाषा का प्रयोग हुआ है, उस पर माहित्यदर्पणकार ही यह उक्ति 'चित्त व्याप्नोति य क्षित्र शुष्केन्वनमिवानल' अक्षरण चरितार्थ होती है | वो राज्ञ समास्थान नानाविच्छित्तिसुन्दरम् ।
प्रभोर्जन्म महो
द्रष्टु स्ववमानमिवागतम् ॥७।१३
स्वार्यमिच्छद्मिविनोपकावनोपकं
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अनेकै राजमार्गस्तदाको
खगैरिव फलद्रम
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किन्तु कठोर प्रमी मे भाषा ओज से परिपूर्ण हो जाती है । ओजव्यजक शब्दों के द्वारा यथेष्ट वातावरण का निर्माण करके कवि ने भावव्यजना को अतीव समर्थ बनाया है । पाँचवे सर्ग मे, इन्द्र के क्रोव वर्णन मे, जिस पदावली की योजना की गयी है, वह अपने वेग तथा नाद मे हृद मे स्फूर्ति का मचार करती है । इम दृष्टि से यह पद्य विशेष दर्शनीय है ।
विपक्षपक्षयवद्धकक्ष विद्य ल्लतानामिव सचय तत् ।
स्फुरत्स्फुलिंग कुलिश कराल ध्यात्वेति यावत्स जिवृक्षति स्म ||
कीतिराज की भाषा मे विम्व निर्माण की
पूर्ण क्षमता है । मम्भ्रम
इस कौशल के कारण नायक को देखने की
के चित्रण की भाषा त्वरा तथा वेग मे पूर्ण है । अपने ही कवि, दमवें सर्ग मे, पोर स्त्रियो को अवीरता तथा उत्सुकता को मूर्त रूप देने में समर्थ हुआ है । देवमभा के इस वर्णन मे, इन्द्र के सहना प्रयाण से उत्पन्न सभासदो की आकुलता, उपयुक्त शब्दावली के प्रयोग से, माकार हो गयी है ।
दृष्टि ददाना सकलासु दिक्षु किमेतदित्याकुलित ब्रुवाणा । उत्थानतो देवपतेरकस्मात् सर्वापि चुक्षोभ सभा सुधर्मा ॥५॥१८
नेमिनाथमहाकाव्य मूक्तियो और लोकोक्तियो का विशाल कोण है । ये एक ओर कवि के लोकज्ञान को व्यक्त करती हैं और दूसरी ओर