Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 16
________________ णमोकार ग्रंथ वह सम्यग्ज्ञान पांच प्रकार है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, प्रवधिज्ञान, मनः पयज्ञान और केवलज्ञान पांच इन्द्रिय और मन की सहायता से जो पदार्थ माना जाता है उसे मतिज्ञात कहते हैं। इसके अनेक भेद हैं-मतिकशान-से जाने हुए पदार्थ से विशेष जानने को श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान भी मनेक प्रकार का है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लेकर रूपी पदार्थ को स्पष्ट जानना अवधिज्ञान है। अवधिज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय और अनुदय को प्राप्त इन्हीं का सदवस्था रूप उपशम इन दोनों के निमित्त से जो होता वह क्षयोपशमनिमित्तक प्रधिज्ञान है। यह मनुष्य तिर्यन्चों के होता है भव निमित्तक अवधिज्ञान देव नारकियों और छमस्थ तीर्थंकर भगवान के होता है। क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान पर्याप्त मनुष्य और संजी पंचेन्द्रिय तिर्यचों के होता है। इसके छह भेद हैं-यह अवधिज्ञान भव से भवांतर, क्षेत्र से क्षेत्रान्तर चला जाता है। कोई अवधिज्ञान बढ़ता है, कोई घटता है, कोई ज्यों का त्यों अवस्थित रहता है और कोई नहीं रहता। ___ अवधिज्ञान के तीन भेद हैं--देशावधि, परमावधि और सविधि । इनमें देशावधि मनुष्य, तिर्यचों के होता है। परमावधि उत्कृष्ट चरितवाले संयत मनुष्यों के होता है। यह ज्ञान बर्धमान और अप्रतिपाती है, अवस्थित है। पर्याय में क्षेत्रान्तार में साथ जाने से अनुगामो भी है। सर्वावधि ज्ञान उत्कृष्ट संयमी मुनि के होता है, यह न वर्धमान है न हीयमान, न अनवस्थित मोर न प्रतिपाती है, केवल शान होने तक अवस्थित रहता है, अप्रतिपाती है। वीर्यान्तराय और मनः पर्यय ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर पंचेन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की मर्यादा लिए हुए दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जानता है। इसके दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुलमति । ऋजुमति मनःपर्यय मन, वचन और काय की सरलता से अन्य के मन में स्थित पदार्थ को किसी के पूछे या विना पूछे ही जानता है किन्तु विपुलति मनःपर्ययज्ञान मन, वचन, काय की सरलता का या वक्रता रूप चिन्तित अचिन्तित और अर्धचिन्तित पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है। यह जघन्य रूप से सात-आठ भव की बात और उत्कृष्टता से पैंतालीस लाख योजन प्रमाण ढाई द्वीप में स्थित पदार्थों को जानता है । जीव के सुख-दुख, जीवन-मरण, और लाभ-अलाभ को भी जानता है। चिताएं चिताए प्रचिताएं विविहभेमेयगयं । जै जाणह परलोए त चिय मणपज्जयं णाणं । तिलो०प०९७३ 1 केवलज्ञान--धातिया कर्म के क्षय से होने वाला केवलज्ञान त्रिकालवर्ती विषयभूत समस्त द्रव्य पौर पर्यायों को एक साथ युगपत् जानता है। इसमें इन्द्रिय क्रम का विधान नहीं रहता, यह ज्ञान असहाय मनन्तचतुष्टय से सम्पन्न है । कहा भी है असवत्त सयलभावं लोपालोऐसु तिमिर परिचत्तं । केवलमखंडभेदं केवलणाण भणति जिणा ॥६७४ । इस तरह सम्यग्शान जीव का महान उपकारी है, वह उसकी यज्ञानता को हटाता है और हित में लगाता है। सम्याचारित्र मोह तिगिरापहरणे वर्शनलाभाववाप्त संज्ञानः । राग-द्वेष-निवृत्य परणं प्रतिपद्यते साधुः ।। रत्न क० ।

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