Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 14
________________ णमोकार पंप प्रात्मानुशासन और यशस्तिलक-सम्र में शासन दर्शन के दश भेद बतलाए हैं. प्राज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ प्रौर परमावगाढ़ । इन सबका स्वरूप उक्त ग्रन्थों से जानना चाहिये। सम्यक्त्व के २५ दोष हैं'–शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितिकरण, पवात्सल्य और अप्रभावना, ये शंकादिक ८ दोष, पाठ मद-ज्ञानमद, जातिमद, कुलमद, बलमद, तपमद, रूपमद, धनमद और प्रतिष्ठामद। तीन मूढ़ता-देवमुढ़ता, गुरुमूढ़ता, लोकमुढ़ता। पद्मनायतनकुगुरु, कुदेव, कुधर्म और तीन इनके सेवक। ये सब मिलाकर २५ दोष होते हैं । इनसे रहित सम्यक्त्व का पालन करना चाहिये । जिस प्रकार प्रक्षर न्यून मंत्र विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता, उसी प्रकार अंगहीन सम्यग्दर्शन भी भव सन्तति को छेदने में समर्थ नहीं होता। निर्दोष सम्यक्त्व का धारक जीव, श्रेष्ठ मानव नौज और तेज से सम्पन्न, विद्या, वीर्य और यश से परिपूर्ण होता है, वह लोक प्रतिष्ठित नर पुंगव महान विभूति का धारक होता है, चक्रवर्ती, नारायण और प्रतिनारायण विभूति का भी धारक होता है। सम्यग्दृष्टि जीव निर्भय और प्रात्मरस का प्रास्वादी होता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में सम्यग्दृष्टि को सप्तभय रहित और निशंक बतलाया है। निर्भय ही अहिंसक होता है, भयवान सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, वह कायर हिंसक होता है । भय सात प्रकार का है-इहलोकभय, परलोकभय, व्याधिमय, मरणभय, आकस्मिकभय, अरक्षणभय, असंयमभय, ये सप्तभय सम्यग्दृष्टि के नहीं होते । इसी कारण लोक में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा होती है। सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र का बीज है । इसके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यचारित्र नहीं होता। भय और प्रशम (बिशुद्धभाव) का जीवन स्वरूप है । इसके बिना उनमें जीवन नहीं पाता । यह तप पौर स्वाध्याय का भी प्राश्रय है । जिसके निर्मल सम्यग्दर्शन है, वही पुण्यशाली है यह मैं मानता हूं। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में प्रधान है। यह सम्यग्दर्शन अतुल सुख का निधान है । समस्तं कल्याण का बीज है। संसाररूपी समुद्र से तारने के लिए जहाज है । भध्यजीव ही इसे धारण कर सकते हैं। अभव्यजोन इसके पात्र नहीं होते। यह सम्यग्दर्शन पापरूपी वृक्ष को काटने के लिये कुठार के समान है और पुण्यतीर्थों में प्रधान है, मिथ्यात्वरूपी विपक्षी शत्रु का जीतनेवाला है। भव्यजीवों का कर्तव्य है कि वे ऐसे सम्यग्दानरूपी अमृत का पान करें। जैसाकि निम्न पद्य से स्पष्ट है प्रतुलसुखनिधानं सर्वकल्याणबीजं जननजल धिपोतं, भव्यसत्वंकपात्रम् । दुरिततस्कुठार, पुण्पतीर्थ प्रधानं पिवत जित विपक्षं दर्शनाख्यं सुधाम्बुम् ।। ज्ञाना० ६.५६ । सम्यम्झान पदार्थों का यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है । प्राचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि येन केन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितस्तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् । विमोह संशय विपर्यय निवृत्यर्थ सम्यग्विशेषणम् । १. मूढ़त्रयं भवश्चाष्टो तथा मायतनानिषट् । भष्टो शंकादरश्चेति दुग्दोषा पंच विंशति ।। २. नांगहीनमल छेत दर्शनं जन्म सन्तति । नहिमंत्रो झरन्यूनो निहन्ति विषवेदनम् ॥

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