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णमोकार ग्रन्थ
सम्यक् हो जाती है। भावों में समता और उदारता आ जाती है । सम्यग्दष्टि हो जाने के बाद समागत सम्पदा में उसे हर्ष नहीं होता और न विपत्ति प्राने पर विवाद ही होता है, इसी से वह कभी दिलगीर या दुखी नहीं होता, अविषयों में उसकी परिणति नहीं जाती । विवेक उमको परिणनि को सदविचारों से परिपूर्ण करता रहता है, वह किसी भी जीव का अहित नहीं करना चाहता और न कोई ऐसा कार्य हो करना चाहता है जिससे दूसरों को कष्ट पहुँचे । वह अपने सच्चे स्वार्थ को ओर प्रवृत्त होता है, परमार्थ में भी वह सच्चा रहता है, वह सदा सच बोलने का प्रयास करता है, वह बुद्धिपूर्वक किसी के विरुद्ध कार्य नहीं करता, और न पर्याय में प्रात्मबुद्धि रखता है, अहंकार और ममकार उसके नहीं होते, परद्रव्य में उसका कर्तृत्वभाव भी नहीं होता। पर पदार्थों से उसको राग परिणति हट जाती है, भोग सम्पदा भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं कर सकती, क्योंकि इन्द्रिय-विषयों से उसको आन्तरिक परिणति में उदासीनता रहती है, उसकी किसी पदार्थ में आसक्ति नहीं होती। वह जीवन से भी निस्पृह रहता है। राज्य कार्य करते हुए भी उसमें लिप्त नहीं होता। वह प्रात्म-निरीक्षण द्वारा अपने दोषों के प्रति सावधान रहता है और मानव जीवन की सफलता के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है । वह घर में जल में कमल की तरह अलिप्त रहता है, और अपने को कारागार में रहने के समान मानता है। क्योंकि पर पदार्थ में उसकी अपनत्व बुद्धि और स्वामित्व नहीं होता। कदाचित् इन विषयों में प्रवृत्ति हो भी जाय तो विवेक के जाग्रत होते ही वह अपनी निदा गहरे द्वारा दोषी का दूर करने में सदा प्रयत्न करता है और चित्तवृत्ति को सदा निर्मल बनाने का प्रयत्न करता है । जितने संसार में सदृष्टि मानव हुए हैं उनकी चित्तवृत्ति ही उनके परिणाम की साधिका रही है । दूसरों के द्वारा दुखी किये जाने पर भी वे चन्दन के समान अपनी शमवृत्ति का परित्याग नहीं करते । जिस तरह चन्दन जलाये जाने या घिसे जाने पर भी अपनी सुरभि (सुगन्धी) का परित्याग नहीं करता । उसी तरह वे सम्यग्दृष्टि सन्त भी अपनी वृत्ति का परित्याग नहीं करते। सम्परव की प्राप्ति
___ अनादि मिथ्यावृष्टि जीब प्रर्द्धपुद्गल परिवर्तन मात्र काल शेष रहने पर सब से पहले प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है। उसकी प्राप्ति के अभिमुख हुमा जीव निश्मय से चेन्द्रिय संजी मिथ्यादृष्टि और पर्याप्त होता है। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, प्रसंजीपंचेन्द्रिय और अपर्याप्त जीव उस सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकते। इसी तरह सासन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी उक्त प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं होते। पूर्वोक्त जीव जब अध:करण, अपूर्वकरण और प्रनितिकरण रूप तीन प्रकार की विशुद्धि को प्राप्त होता है तब वह अनिवृत्तिकरण रूप तीन प्रकार की विशुद्धि से युक्त होता है तब बह अनिवृत्तिकारण विशुद्धि के अन्तिम समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने से पहले जीव के पांच लब्धियां होती हैं। क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण । इनमें से प्रारंभ की चारों लब्धियाँ भव्य जीव के समान प्रभव्य के भी संभव है। परन्तु अन्तिम करण लब्धि भव्य जीव के ही होती है, जब वह सम्यवत्व के सन्मुख होता है। पूर्वोक्त चार लब्धियों के होने पर जीव करण लब्धि के योग्य भाववाला हो जाता है । १. चमनं घृष्यमाणं हापमानोपथा गुरुः ।
न याति बिकियां साधुः पौषितोऽपि तथा परैः सुभाषितम् ।