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णमोकार नय
तीन लोक और तीन काल में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो सम्यग्दर्शन के समान जीव का कल्याण कर सकती हो । और मिथ्यात्व के समान ऐसी कोई अन्य वस्तु नहीं है जो जीव का अकल्याण कर सकती हो । जिस तरह संसार समुद्र में पड़ी हुई नाव को खेवटिया उस पार ले जाने में समर्थ है । उसी तरह सम्यग्दर्शन भी जो वन-नौका को लेकर मोक्ष तट के पार पहुचाने में समर्थ है।
सम्यग्दर्शन का ही यह प्रभाव है, जो सम्यक्त्व से सम्पन्न नाण्डाल कुलोत्पन्न मानव भी पूज्य हो जाता है। और सम्यक्त्व के बिना मुनिधर्म का पालन करने वाले द्रालगी साधु को सम्यग्दृष्टि गृहस्थ से हीन बतलाया गया है। उसकी हीनता का कारण सम्यक्त्व का अभाव ही है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पूर्व यदि कोई जीव नरक, तियंचायु का बासुष्क हो गया हो तो उसके सम्यग्दर्शन होने पर उसके प्रभाव से उनकी स्थिति में अवश्य है सुधार हो जाता है । वे मरकर नरक, तिर्यंच गति को जरूर प्राप्त करेंगे। यातिनि बन्द नहीं छूना, गिरमिति अल्पता हो जाती है, जैसा कि चारित्रसार के निम्न पद्य से प्रकट है :
बुर्गतीवायुषोबन्ध सम्यक्त्वं यस्य जायते।
गतिश्छेदो न तस्यास्ति तथाल्पतरा स्थिति: ॥ यह भी सम्यग्दर्शन का ही प्रभाव है जो प्रवद्धायुष्क शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव अन्नती होते हुए भी नरक, तिथंच गति, नपुंसक और स्त्री पर्याय को प्राप्त नहीं होते, और निद्यकुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते । और न स्थावर एवं विकलत्रय पर्याय को प्राप्त करते हैं । ८ बद्धायुष्क होने पर भी वे सम्यग्दर्शन के प्रभाव से सप्तमादि नरकों को आयु बांधने वाले प्रथम नरक से आगे नहीं जाते । तथा विकलत्रय पर्याय को म धारण कर संजी पंचेन्द्रिय पुल्लिग पर्याय को ही धारण करते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथ्वी को छोड़कर अधस्तन छहों पृथ्वियों में, ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी देवों में मौर सर्व प्रकार की स्त्रियों में तिर्य चिनी, मनुष्यनी और देवियों में बारह मिथ्यावाद में-एफेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय पौर असंज्ञी पंचेन्द्रिय सम्बन्धी तिमंचों के द्वादश जीव समासों में उत्पन्न नहीं होता।
इन सब उल्लेखों से सम्यक्त्व की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है । सम्यग्दर्शन के होने पर इस जीव के ४१ कर्म प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से जीव की अभद्र परिणति भद्रता में परिणित हो जाती है । उसके भावों में विचित्र परिणमन हो जाता है । मिथ्यादृष्टि के पलटते ही दृष्टि
६. न सम्यक्त्व समं किंचित्रकाल्ये विजगत्यपि ।
श्रेये श्रेयश्य मिथ्यात्वसम नान्यत्तनुभृताम् ।। रल फ० श्रा०३४। ७. भवाबधो भव्य सायंस्प निर्माण दीवियापिनः ।
चारित्र यान पात्रस्य कर्णधारी हि दर्शनम् ॥ ६. सम्यग्दर्शन सुद्धा नारक-नियंइ-नपंसक-स्त्रीत्वानि ।
कल-विता ल्पामर्दरिद्रतो च जति नाप्रप्रतिकाः ॥ रत्न क. पा. ३१ ६. (क) हसु हैट्टिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण सब्बाइस्थी ।
वारस मिच्छावादे सम्माइटिस णस्थि उववादो।। पंच सं. १६३ । जीवसमास इस्य) ज्योतिर्भावनभोमा पदम्वधः पवधभूमिषु । तियंग्नर-सुरात्री सष्टिनव जायते ।।
सं.पं.सं. रडा १.२२७
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